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राज ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की । आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज तो कविश्रीजी द्वारा रचित धार्मिक, देश-प्रेम एवं भक्ति रस से आप्लावित गीतों को अपने प्रवचनों में भी गाते थे ।
काव्याञ्जलि की कविताएँ सन् १९३६ में लिखी गई थी । ५३-५४ वर्ष पूर्व भी कविश्रीजी के विचार साम्प्रदायिक मान्यताबों के क्षुद्र घेरों से पूर्णतः मुक्त थे । वे बिना किसी भेद-भाव के मानव जाति के उत्थान एवं सेवा के लिए स्पष्ट आह्वान करते है । एक कविता में वे कहते हैं ।
"मरणोन्मुख रंक बुभुक्षित हो, पर द्रव्य कभी न उठावत है । दलितादिक बेकस - बेवस की गह बांह स्वबन्धु बनावत है || निज देश- समाज - हितार्थ सभी धन राशि सहर्ष लुटावत हैं । नर-रत्न जगत्त्रय पूजित के 'कर-युगम सुरत्न' कहावत हैं || " एक स्थान पर 'अमूल्य नर - जीवन' के शीर्षक से आप
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कहते हैं
"उपकार करो तन से, मन से,
धन से, जन से, जग - दुःख हरो । अविचार, अनीति तजो सब ही,
मत वैभव का कुछ गर्व करो ॥ अपने पर खूब सचेत रहो,
फिर तो जग में अणु भी न डरो । नर-जन्म अमोल मिला, कुछ तो,
पर लोक हितार्थ निकाल धरो ॥" प्रसन्नता है, कि काव्याञ्जलि का द्वितीय संस्करण पाठकों के कर-कमलों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि पाठक इससे जीवन में नई दिशा एवं प्रेरणा प्राप्त करेंगे ।
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- तनसुखराज डागा मंत्री, वीरायतन
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