Book Title: Kavyanjali
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 47
________________ * मित्र रवि के साथ उडुपति क्यों मलिन मुख हो रहे, दूसरों के द्वार पर जो भी गए सब रो रहे । * कालेज में जा हिन्द की प्राचीन हिस्ट्री सीख लो, निज पूर्वजों के वृत्त की खिल्ली उड़ाना सीख लो, ★ मूर्ख कहते हैं किसे, यह जानते हैं आप क्या ? जो समझता है स्वयं को बुद्धिसागर और क्या ? 4 दूसरों को दुःख दे खुद सौख्य पाता है नहीं, पैर में चुभते ही कांटा टूट जाता है वहीं । नारनौल, चातुर्मास, १९९३ * अकेला भूल करके भी नहीं अभिमान आता है, भयंकर संकटों का संघ अपने साथ लाता है। * मूर्ख का अन्तःकरण रहता हमेशा जीभ पर, दक्ष के अन्तःकरण पर जीभ रहती है प्रखर । * क्लेश नौका - छिद्र ज्यों प्रारम्भ में हो मेट दो, __अन्यथा सर्वस्व की कुछ ही क्षणों में भेट दों। * भंग मर्यादा हुए पर दुर्दशा होती बड़ी, बाग से बाहिर झुका तरु भी व्यथा पाता कड़ी। * उड़ रही थी व्यर्थ की गप-शप, कि घंटा बज गया, मौत का जालिम कदम एक और आगे बढ़ गया। * दुर्जनों की जीभ सच - मुच ही नदी की धार है, स्वच्छ सम ऊपर से, अन्दर भीम-भय - भंडार है । * छेड़िये तो उसको जिसका शस्त्र तीर कमान है, पर, उसे मत छेड़िए जिसका कि शस्त्र जबान है। यदा-कदा, १९६६ [ ३८ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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