Book Title: Kavyanjali Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith AgraPage 12
________________ दोषदृष्टिपरं मनः स्वर्णपात्र - भरे शुद्ध मेवा और मिष्टान्न छोड़, शूकर पुरीष की ही खुशियाँ मनाता है। मक्षिका को सुन्दर शरीर पै जखम छोड़, पुष्प - माला आदि अन्य कुछ नहीं भाता है ॥ नीच जौंक सुरभी के स्तन में लगा के मुंह, दुग्ध-पान छोड़ गंदा रक्त चूस जाता है । दुष्ट दुराचारी भी गुणी के पास बैठ मात्र, दोष देखता है, नहीं गुण देख पाता है। नारनौल, श्रावण, १९६३ मस्तक - रत्न जब विश्वहितंकर सन्त मिलें, चरणों पड़ धूलि लगावत है। फँस संकट चक्र कभी निज को न असत्य समक्ष झुकावत है। कुविचार न एक कदापि उठे सुविचार असंख्य उठावत है। नर रत्न जगत्त्रय - पूजित का वह 'मस्तक' रत्न कहावत है।। दिनांक : १० मई १९३६ जय समुद्र मानस - रत्न स्फटिकोज्ज्वल स्वच्छ सदैव रहे अघपंक सुदूर हटावत है। जगन्नाथ अनंत दयानिधि को हृद-मन्दिर बीच वसावत है। निज के दुख में पवि, तो पर के नवनीत सदा बन जावत ।। नर रत्न जगत्त्रय पूजित का वह 'मानस - रत्न'कहावत है ।। दिनांक । १० मई १६३६ जय समुद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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