Book Title: Kavyanjali
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 27
________________ दीपक दीपक ! तू सचमुच दीपक है, अपनी देह तम - परिपूर्ण नरक - सम गृह को, अपने मलिन धूम्र को भी तू, तनिक न व्यर्थ सुन्दरियों के चपल दृगों में, कज्जल क्षण में स्वर्ग बनाता || शीष कटा कर दुगुना जलता, तम को मार अमर विजय मरने वाला ही पाता सदा अपने तले अँधेरा रहता, जग परोपकार - निरत वीरों को, - - Jain Education International अपना ध्यान न "मैं नगण्य क्या कर सकता है ?" सूर्य - चन्द्र अगम्य - में, प्रकाश गंवाता । रंग बरसाता ॥ जलाता । जग मग स्नेह - हीन जग जीने से तो, मरना भला [ १८ ] भगाता । बताता ॥ दीपक ! तुझे न भाता । फैलाता । आता ॥ ज्योति जगाता | कहाता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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