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समीप में हम यदि पहुँच जाते,
fare भगे ट, बकते - बकाते ॥ बनें यवन जब चुटिया कटा के,
बड़ी खुशी से गोमांस खाके । अजी, मियाँजी ! कह तब बुलावें,
झटपट सिराहने पर ला बिठावें ॥। बुरा हमारा बस हिन्दु होना,
भला विधर्मी दुर्वृत्त होना । समूल ही बुद्धि गई तुम्हारी,
विचित्र सी है जड़ता तुम्हारी ॥ सदैव सेवा करते तुम्हारी
अमूल्य बीती हम आयु सारी । हमें सँभाला तुमने कभी क्या ?
'मनुष्य ये भी' सोचा कभी क्या ? पीएँ, गोमांस खाएँ, दवा विदेशी सब चाट जाएँ । यथापि ना धर्म गया तुम्हारा,
भगा कि पल्ला भिड़ते हमारा ॥ नहीं महीसुर, अतिशूद्र ही हैं,
नहीं समुन्नत सिर पैर ही हैं । मनुष्य तो हैं, अब तो सँभालो, गरीब भाई बिगड़ें बचालो ||
शराब
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नारनौल, सन् १९३९
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