Book Title: Kavyanjali Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith AgraPage 43
________________ निज नीति पालन के लिए जो कष्ट सहता है सदा, जो धर्म - धैर्य अपने की परीक्षा करता रहता है सदा। जागृत सदा रहती है जिसको बुद्धि बोध - विधायिनी, रखता क्षमा की संग में नित शक्ति जयश्री - दायिनी ॥ ऐसा श्रमण भव - भीरुओं की भीति को करता हरन, निज देशना - जल से सदा त्रय - पाप को करता शमन । सभक्ति से चरणोत्पलों में धोक देना चाहिए, कर सतत सेवा 'अमर' अमरत्व लेना चाहिए। महेन्द्रगढ, चातुर्मास. १९८६ तपोधन मुनि शीत - काल में पौष - माघ का शोत भयंकर सहते, वस्त्र - हीन हो झंझानिल के दृढ झोंकों में रहते । अर्धरात्रि में ताल - तीर पर ध्यान - सिन्धु में बहते, वीर तपोधन मुनिराजों के कर्म - दुर्ग द्रुत ढहते । ग्रीष्म - काल में गिरिशृंगों पर ऊँची भुजा उठाकर, आत्म - ध्यान ध्याते हैं तन की ममता दूर हटा कर, बार - बार उत्तप्त प्रभंजन जाता हिला - हिला कर । देव, देवपति करें वन्दना कर युग मिला - मिला कर, वर्षा में दिन रात जोर से अभ्र झमा - झम झरते, उत्तुंगाद्रि प्रवाहित निर्भर शब्द विभीषण करते । विद्य त के गुरु गर्जना से भी तनिक न मन में डरते, शून्यारण्ये ध्यान धरें, द्रुत भव - सागर से तरते। नारनौल, अनन्त चतुर्दशी, १९९३ [ ३४ ] . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibjary.orgPage Navigation
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