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पतन
सदा के हँसनेवाले अब सतत आँसू बहाते हैं । पशु से भी गया बोता अधम जीवन बीताते हैं । तरसते थे कभी सुर भी कि लेवें जन्म भारत में । यहाँ आने से अब तो नारकी भी जी चुराते हैं। हमारे शिष्य बन - बन के विदेशी सभ्यता सीखे । हमें वे आज जंगली अर्ध - सभ्यों में गिनाते हैं । कभी दिक् चक्र गूजे थे हमारे युद्ध नादों से। अंधेरे में निकलते गीदड़ों से थर - थराते हैं। दुखी को देख रो उठते हृदय से चट लगा लेते। अकारण आज दुखियों को हमी हँस - हँस सताते हैं। हमारे ज्ञान - सूरज की जगत में ज्योति फैली थी। हमें अब गैर ज्ञानी बन ए. बी. सी. डी. पढ़ाते हैं । वसन - भोजन हमारे से कभी संसार पाता था। बुभुक्षित नग्न अब तो रात - दिन रो - रो बिताते हैं । सदाचारी तपस्वी थे कि आते इन्द्र दर्शन को। 'अमर' अब तो अहर्निश पाप - पथ की ओर जाते हैं ।
२५, अप्रैल, १९३६
निजामपुर,
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