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क्यों न आया, क्या कहीं,
मारा गया था तू सदा ।। सूखता था क्या बता,
अब क्षेत्र सुन्दर शालि का। या बुलाया था किसी ने,
फेर कर जप - मालिका ।। जो तू आया शीत ऋतु के,
इस भयंकर काल में । बर्फ की चट्टानें जमती,
हन्त ! अनु दिन ताल में । दीन मर्त्य क्षुधा - प्रपीड़ित,
है न शक्ति शरीर में। जानु युग में सिर लगा,
निश काटते स्व कुटीर में । वात - ताड़ित वल्लरी - सम,
नग्न थर-थर काँपते । शीत के मारे किटा - किट,
दाँत रह - रह बाजते ।। मत सतावे हा स्वयं मृत,
दीन मानव - वृन्द को। छोड़ दे गर्जन व तर्जन,
के व्यथा - कर द्वन्द्व को।। जाइए, अब जाइए, निज
घाम सत्वर जाइए।
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