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हाँ, इक बात विशेष तुम्हारी,
सर्व जगत ने है जानी, कर दो तुम दुग्ध का दुग्ध,
शीघ्र पानी का पानी । इसी बात पर मात्र तुम्हारा,
जगत यश सदा है गाता, वैभव का है नहीं मान यह, न्याय ही है आदर
लोभी
लोभी को न लज्जा होती भीति जाती शीघ्र छोड़, देश और जाति के समग्र तन्त्र देता तोड़ | पुण्य को अस्पृश्य माने पाप से ले प्रेम जोड़ । स्वार्थ के समक्ष धर्म कर्म की लगा दे होड़ । क्रूर वैरी करुणा का, हिंसा का अनन्य भक्त, एक काणी कोड़ी हेतु, बन्धु का बहा दे रक्त । 'लाओ जोड़ रक्खो' इन्हीं शब्दों का प्रसार फक्त, शान्ति से न बैठ पाता, हाय हाय, हर वक्त ।
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पाता ।
सन् १९३५.
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यत्र हिस्र सिंह व्याघ्र देखते ही काँपे मन, घूमते मसीव श्याम सर्वतः पुलिन्द जन । तत्र घोर वन में बिता दे वर्ष वर्ष दिन, किन्तु धर्म स्थान में बिताते पल-पल गिन ।
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