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समुद युग - दृगों से एक - सा देखते हैं, जगत - हित प्रभू से तन्त ही चाहते हैं । पतित जन घृणा से नित्य जाते सताये, मनुज - कुलज जाते स्वान ज्यों दुदुंराये। अवनति अति होती जा रही है जिन्हों की, जन्म-भर बजाते सन्त सेवा उन्हों की ॥ सघन घन - घटाएँ संकटों की घिरी हैं, पर, न अचल वाणी सज्जनों की फिरी है। अभय हृदय आगे मृत्यु भी कांपती है, हरि-मुख हरिणी-सी भीत हो भागती है ।
अजमेर - मुनि, सम्मेलन, १९६०
विश्व-वन्द्य महावीर क्रान्ति का बजा के सिंहनाद घोर-गर्जना से,
आलस्य - संहार देश सोते से जगाता है । दीन-दुःखी दुर्बलों की सेवा की कंटीली बलि
वेदी पर सहर्ष भेंट प्राणों की चढ़ाता है। आँखों के समक्ष खुद काल भी खड़ा हो क्यों न,
भीति नहीं लाता मन मेरु - सा बनाता है। सादर समस्त जग - मण्डल से धूलि भरे,
अपने चरण वो ही वीर पुजवाता है ।। १६, अक्टूबर, १६३६
नारनौल,
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