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अतः स्नेह बिना दीपक ! तू भी,
बाधक - अधम पतंगों को द्रुत,
यमपुर - दृश्य
कर्तव्य मार्ग में विघ्न-विमर्दक,
रहना सतत
झटपट स्वर्ग सिधाता ॥
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दिखाता ।
सन्तजन
मधुर मधु सुधा से, नीम जैसे कटू हैं, कठिन कुलिश जैसे, पुष्प - जैसे मृत हैं । रजकण सम छोटे, शैल - जैसे बड़े हैं, चकित जगत है, ये सन्त कैसे घड़े हैं ||
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सिखाता ।
महेन्द्रगढ़, १९६२
जगत सब अविद्या - सिन्धु में डूब जाता, फिर न कुछ विचारे का पता आज पाता । सदय - हृदय - धारी सन्त ही की दया है, समय पर सहारा सर्वदा ही दिया है ॥ प्रिय सुत वनिता का सर्वथा मोह छोड़ा, अतुल धन-धरा से भी स्व-सम्बन्ध तोड़ा । सुध-बुध निज भूले मत्त से घूमते हैं, पतित - जगत - जीवों को सदा तारते हैं ।।
चतुर कहत कोई मूढ कोई बताता, सकल सुखद कोई, व्यर्थ कोई बताता ।
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