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________________ अतः स्नेह बिना दीपक ! तू भी, बाधक - अधम पतंगों को द्रुत, यमपुर - दृश्य कर्तव्य मार्ग में विघ्न-विमर्दक, रहना सतत झटपट स्वर्ग सिधाता ॥ - दिखाता । सन्तजन मधुर मधु सुधा से, नीम जैसे कटू हैं, कठिन कुलिश जैसे, पुष्प - जैसे मृत हैं । रजकण सम छोटे, शैल - जैसे बड़े हैं, चकित जगत है, ये सन्त कैसे घड़े हैं || Jain Education International सिखाता । महेन्द्रगढ़, १९६२ जगत सब अविद्या - सिन्धु में डूब जाता, फिर न कुछ विचारे का पता आज पाता । सदय - हृदय - धारी सन्त ही की दया है, समय पर सहारा सर्वदा ही दिया है ॥ प्रिय सुत वनिता का सर्वथा मोह छोड़ा, अतुल धन-धरा से भी स्व-सम्बन्ध तोड़ा । सुध-बुध निज भूले मत्त से घूमते हैं, पतित - जगत - जीवों को सदा तारते हैं ।। चतुर कहत कोई मूढ कोई बताता, सकल सुखद कोई, व्यर्थ कोई बताता । [ १६ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001348
Book TitleKavyanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1989
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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