Book Title: Kavyanjali Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith AgraPage 18
________________ जगन्नाथ जगन्नाथ ! जरा इस ओर भी, चरण - किंकर की सुधि कीजिए। विकट दुर्मति - वारिधि में बहा, सुमति - पौत बिठा झट दीजिए। · अमित जन्म - समजित पाप की, मलिनता ममता कृपया हरो। परम पावन पुण्य - पवित्रता, पतित-बन्धु ! ममान्तर में भरो॥ कुटिल काल - पुलिन्न अनादि से, मरण - चक्र सवेग घुमा रहा। त्वरित आ कर नष्ट करें इसे अभी, अह ! किमर्थ विलम्ब लग रहा । विषय - भोग - विलास - कुवासना, हृदय से क्षण भी हटती नहीं। कर विनष्ट विचूणं यहीं रहो, हृदय - मन्दिर में तुम नित्य ही ।। निज समान तुरन्त बना लिए, चरण पंकज - आश्रित जो रहे । यदि नहीं इतना, तब दास तो, अधम भी प्रति जन्म बना रहे ।। पार्श्व-जयन्ती, १९६२ ] ६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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