Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti

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Page 12
________________ पर काकासाहेब का विकासशील व्यक्तित्व वहीं रुका नहीं, विगत वर्षों में उसने आगे की और भी मंजिलें पार कीं और इन वर्षों में उन्होंने देश-विदेश को समन्वय का संदेश दिया । वे मानते हैं कि मानव जाति का भविष्य विविधता के बीच एकता सम्पादित करने में है । इसी बात को ध्यान में रखकर निश्चय किया गया कि काकासाहेब की पिच्चानवेवीं वर्षगांठ पर उन्हें एक ग्रन्थ अर्पित किया जाय । प्रस्तुत ग्रन्थ उसी निश्चय का सुफल है । इस ग्रन्थ के आरम्भ में विनोबा, मुक्तानन्द परमहंस, रविशंकर महाराज और निचीदात्सू फूजीई के मंगल वचन तथा दो भावांजलियां दी गई हैं। तत्पश्चात ग्रंथ की सामग्री को चार खण्डों में विभाजित कर दिया गया है। पहले खण्ड 'व्यक्तित्व' में उन व्यक्तियों के संस्मरण दिये गए हैं, जिन्हें काकासाहेब को निकट से देखने और समझने का सुयोग मिला था । दूसरे खण्ड 'बढ़ते कदम' में काकासाहेब का उन्हीं की लेखनी से लिखा आत्म-परिचय संकलित किया गया है। तीसरे खण्ड 'विचार' में काकासाहेब की चुनी हुई रचनाओं का संग्रह है । उसे हमने तीन भागों में विभक्त कर दिया है (२) जीवन दर्शन (२) प्रकृति दर्शन और (३) मानव दर्शन । चौथे खण्ड 'पत्रावली' में हमने काकासाहेब के कुछ चुने हुए पत्र दिये हैं । अन्त में परिशिष्ट में काकासाहेब के जीवन की प्रमुख घटनाओं की तालिका तथा उनकी रचनाओं की सूची दे दी है। काकासाहेब ने विपुल साहित्य की रचना की है। उनका सारा साहित्य उच्च कोटि का है। हमारे सामने बहुत बड़ी कठिनाई यह रही कि इस ग्रन्थ के सीमित पृष्ठों में किन रचनाओं को दें, किनको छोड़ें। पाठकों से हमारा अनुरोध है कि वे काकासाहेब के पूरे साहित्य को पढ़ने की कृपा करें । ग्रंथ कंसा बन पड़ा है, इस संबंध में हमें विशेष कुछ नहीं कहना है हम यही कह सकते हैं कि ग्रंथ अधिक-से-अधिक सुपाठ्य तथा उपयोगी बने और काकासाहेब के प्रखर व्यक्तित्व तथा समन्वयी विचारों की झांकी उसमें आ जाय, ऐसा हमारा प्रयत्न रहा है। ग्रंथ की तैयारी में और उसके प्रकाशन में जिन्होंने अपना मूल्यवान योग दिया है, उनका शब्दों में आभार मानना धृष्टता होगी। वस्तुत: काकासाहेब का विशाल परिवार उनके प्रति इतनी आत्मीयता रखता है कि उनसे संबंधित किसी भी अनुष्ठान में अपना हविर्भाग अर्पित करना उसके लिए प्रसन्नता का ही नहीं, धन्यता का कारण होता है । पाठकों को शायद पता होगा कि विनोबाजी की लेखनी ने एक प्रकार से विराम ले रक्खा है। बाबा मुक्तानन्द परमहंस विदेश में हैं, रविशंकर महाराज अस्वस्थ हैं और नीची दासू फूजी गुरुजी प्रायः प्रवास में रहते हैं, लेकिन हमारे अनुरोध पर उन्होंने तत्काल अपने मंगलवचन लिखकर भेज दिये, उसके लिए हम उन सबके प्रति जितना आभार व्यक्त करें, थोड़ा है। संस्मरण लेखकों ने अल्प समय में बड़ी महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत कर दी, हम उनके ऋणी हैं। ऐसे ग्रन्थों का प्रकाशन कितना व्यय-साध्य है, यह किसी से छिपा नहीं है । उस दिशा में जिन्होंने हमें उदारतापूर्वक सहायता दी, उनके प्रति हम अपनी आंतरिक कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं। इस मंगल अवसर पर हम काकासाहेब का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं और प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि उनका वरदहस्त अभी बहुत समय तक हमारे ऊपर बना रहे और हम उनसे सतत प्रेरणा प्राप्त करते रहें। - सम्पादक-मंडल

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