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सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण ।
तुम भी गुजरे हो। मंदिर के आसपास ही परिक्रमा चल रही है। आंख आक्रामक है, कान ग्राहक है। और महावीर की अहिंसा क्योंकि परमात्मा सब जगह मौजूद है। कहीं भी जाओ, उसी के इतनी गहरी है कि वह आंख का उपयोग न करेंगे। क्योंकि आंख पास परिक्रमा चल रही है। कुछ भी देखो, तुमने उसी को देखा में आक्रमण है। जब मैं तुम्हें देखता हूं, तो मेरी आंख तुम तक है। कुछ भी सुनो, तुमने उसी को सुना है। कोयल पुकारी हो, गयी। जब मैं तुम्हें सुनता हूं, तब मैंने तुम्हें अपने भीतर लिया। कि झरने की आवाज हो, कि जलप्रपात हो, कि हवाएं गुजरी हों जब मैं तुम्हें देखता हूं, तो देखने में एक आक्रमण है। इसलिए वृक्षों से, वही गुजरा है। लेकिन, तुम उसे पहचान नहीं पाते। कोई आदमी तुम्हें घूरकर देखे, तो अच्छा नहीं लगता। कोई तुम्हें बतानेवाले वहीं पर बताते हैं मंजिल
गौर से सुने, तो बहुत अच्छा लगता है, खयाल किया? गौर से हजार बार जहां से गुजर चुका हूं मैं
सुननेवाले को तुम बड़ा प्यार करते हो। लोग तलाश में रहते हैं, मंजिल तो तुम्हारे भीतर है; गुजर चके, यह कहना भी ठीक | कोई मिल जाए सुननेवाला। नहीं। जहां तुम सदा से हो, मंजिल वहीं है। कसौटी तुम्हारे पास | पश्चिम में, जहां कि सुननेवाले कम होते चले गये हैं, नहीं। सोने का ढेर लगा है चारों तरफ, तुम्हारे पास सोने को मनोविश्लेषक है। वह 'प्रोफेशनल' सुननेवाला है। कसने का पत्थर नहीं। हीरे-जवाहरात बरस रहे हैं चारों तरफ, | व्यवसायी। उसे पैसे चुकाओ, वह घंटे भर बड़े गौर से सुनता तुम्हारे पास जौहरी की आंख नहीं।
है। पता नहीं सुनता है कि नहीं सुनता, लेकिन जतलाता है कि और महावीर कहते हैं, श्रवण पहला सूत्र है। सुनो। ऐसा | सुनता है। कभी भी नहीं हुआ है पृथ्वी पर कि जागे पुरुष न रहे हों। ऐसा लोग बड़े प्रसन्न लौटते हैं मनोवैज्ञानिक के पास से। वह कुछ होता ही नहीं। उनकी शृंखला अनवरत है। अनुस्यूत हैं वे। भी नहीं करता। वह कहता है सिर्फ तुम बोलो, हम सुनेंगे। अस्तित्व में प्रतिपल कोई न कोई जागा हुआ पुरुष मौजूद है। सुननेवाला इतना भला लगता है, इतना ग्राहक! तुम्हें स्वीकार अगर तुम सुनने को तैयार हो, तो परमात्मा तुम्हें पुकार ही रहा करता है। लेकिन अगर कोई तुम्हें गौर से देखे, तो अड़चन आती है। कभी महावीर से, कभी कृष्ण से, कभी मुहम्मद से। वह है। मनस्विद कहते हैं तीन सेकेंड तक बर्दाश्त किया जा सकता तुम्हें हजार ढंगों से पुकारता है। वह हजार भाषाओं में पुकारता है। वह सीमा है। उसके आगे आदमी लुच्चा हो जाता है। लुच्चे है। वह हजार तरह से तम्हारे हाथ हिलाता है। लेकिन तम हो कि का मतलब, गौर से देखनेवाला। और कछ मतलब नहीं। जो तुम सुनते नहीं।
मतलब आलोचक का होता है, वही लुच्चे का होता है। दोनों मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर
एक ही शब्द से बने हैं—लोचन, आंख। लुच्चे का अर्थ है, जो रात ही तारी रही इंसान के इद्राक पर
तुम्हें घूरकर देखे। आलोचक का भी यही अर्थ होता है कि जो अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा
चीजों को घर-घूरकर देखे, कहां-कहां भूल है। दिल में तारीकी दिमागों में अंधेरा ही रहा ।
लेकिन तुम गौर से सुननेवाले को बड़ा आदर देते हो। घूर के और मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर, रात ही देखनेवाले को बड़ा अनादर। हां, किसी से तुम्हारा प्रेम हो, तो तारी रही इंसान के इद्राक पर। सूरज चमकता ही रहा है, सदियों तुम क्षमा कर देते हो। वह तुम्हें गौर से देखे, चलेगा। लेकिन से, सदा से। सूरज इस अस्तित्व का अनिवार्य अंग है। लेकिन जिससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं, तो तीन सेकेंड से ज्यादा आंख आदमी अंधेरे में ही जीता है। आदमी अपने भीतर बंद है। ऐसा नहीं टिकनी चाहिए किसी पर। वहां से शिष्टाचार समाप्त हो समझो कि सूरज निकला हो और तुम घर के भीतर द्वार-दरवाजे जाता है। वहां से बात अशिष्ट हो जाती है। तो हम रास्ते पर बंद किये बैठे हो। फिर सूरज करे भी तो क्या? द्वार-दरवाजे आंखें बचाकर चलते हैं। देखते भी हैं, नहीं भी देखते हैं। दुबारा खोलो, थोड़े ग्रहणशील बनो। कान का यही अर्थ है। कान | लौटकर नहीं देखते। देखने का मन भी हो, तो भी आंखें प्रतीक है ग्रहणशीलता का।
यहां-वहां कर लेते हैं। इसे भी समझ लेना।
तुमने कभी खयाल किया, लोग एक-दूसरे की आंखों में आंखें
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