Book Title: Janma Aur Mrutyu Se Pare Author(s): A C Bhaktivedant Publisher: Bhaktivedant Book Trust View full book textPage 8
________________ हम यह शरीर नहीं हैं देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (भ.गी. २:३०.) "हे भरत के वंशज ! इस शरीर में जो रहता है वह सनातन है और उसकी हत्या नहीं की जा सकती है, इसलिए किसी भी जीव के लिए दु:ख करने की आवश्यकता नहीं है।" आत्मज्ञान का पहला कदम, अपने शरीर से भिन्न समझना है। “मैं यह शरीर नहीं हूँ, बल्कि आत्मा हूँ," यह जानना हर एक के लिए अनिवार्य है जो मृत्यु से ऊपर चढ़ कर वैकुण्ठ लोक में प्रवेश करना चाहते हैं। कवल कहने की बात नहीं है कि मैं यह शरीर नहीं हूँ, बल्कि वास्तविकता में अनुभव करने की बात है। यह इतना सरल नहीं है जितना देखने में लगता है। यद्यपि हम यह शरीर नहीं हैं, एक पवित्र आत्मा हैं, फिर भी किसी प्रकार शरीर के बन्धन में बँधे हुए हैं। यदि हम मृत्यु को पार करने वाली स्वतन्त्रता और सुख चाहते हैं तो हमें अपने आप को अपने शुद्ध स्वरूप भावनामय आत्मा में स्थिर करना और रहना होगा। शरीर को अपना समझ कर सुख का जो हमारा ख्याल है वह एक दुःस्वप्न जैसा है। कुछ विचारक कहते हैं कि इस स्वप्न जैसी शारीरिक पहचान की स्थिति की चिकित्सा कोई भी कर्म न करना ही है। क्योंकि ये सांसारिक क्रियाओं की वजह से ही हमें यह सब दुःख प्राप्त हुआ है, इसलिए वे कहते हैं कि सभी क्रियायें बन्द कर देनीPage Navigation
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