Book Title: Janma Aur Mrutyu Se Pare
Author(s): A C Bhaktivedant
Publisher: Bhaktivedant Book Trust

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Page 14
________________ शरीर को संयम में रखना अनिवार्य है। बिना नियमित सिद्धान्तों के जीवन में पूर्णता पाना सम्भव नहीं है। नियमित सिद्धान्त भिन्नभिन्न राष्ट्रों और शास्त्रों में भिन्न-भिन्न हो सकते हैं ; इससे कोई फर्क नहीं है क्योंकि वे देश, काल और मनुष्यों की रुचियों के अनुसार ही बनाये गये हैं। परन्तु नियमों का सिद्धान्त एक ही है। इसी प्रकार सरकार भी अनेकों नियम नागरिकों के लिए बनाती है। बिना नियमों के सरकार या समाज की प्रगति की कोई सम्भावना नहीं है। उपरोक्त श्लोक में कृष्ण भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि वेद के ये नियम तीनों गुण सत्त्व, रज और तम से ऊपर चढ़ने के लिए हैं। लेकिन कृष्ण भगवान् अर्जुन को अपना मत देते हैं कि अपने को अपने स्वरूप आत्मा में, प्रकृति के द्वन्द्व से परे रखो। हमने यह भी समझाया है कि यह द्वन्द्व इन्द्रियों के विषयों के साथ . जो सम्बन्ध होते हैं उनसे उत्पन्न होते हैं। जैसे जाड़ा और गर्मी, सुख और दुःख-दूसरे शब्दों में यह अपने को शरीर समझने से उत्पन्न होता है। कृष्ण भगवान् कहते हैं कि जो भौतिक आनन्द और शक्ति चाहते हैं वे वेद के शब्दों के धोखे में आ जाते हैं जो किसी को दुःख और • यज्ञों और नियमित कर्मों से स्वर्गलोक के आनन्द का प्रलोभन बतलाते हैं। आनन्द लेना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है; यह आत्मा का गुण है परन्तु जब आत्मा सांसारिक चीजों में आनन्द लेना चाहती है तो यह गलत है। हर कोई भौतिक विषयों में आनन्द लेने जाता है और जितना सम्भव हो सकता है उतना भौतिक ज्ञान एकत्रित करता है। कोई रसायन शास्त्री, भौतिक शास्त्री, राजनैतिक या कलाकार इत्यादि बनता है। हर कोई किसी न किसी चीज के विषय में कुछ न कुछ जानता है और साधारणतया इसी को ज्ञान कहते हैं। परन्तु जैसे ही हम यह शरीर छोड़ते हैं हमारा सभी ज्ञान समाप्त हो जाता है। पिछले जन्म में कोई व्यक्ति महान् ज्ञानी हो सकता है परन्तु इस जीवन में उसे

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