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दूसरा आकाश है जो परम है। वहाँ सभी लोक सनातन हैं और सभी जीवों का जीवन सनातन है। इस श्लोक में 'भावः' शब्द के माने प्रकृति है और यहाँ दूसरी प्रकृति भी बताई गई है। इस संसार में हमें दो प्रकृतियों का अनुभव है। जीव आत्मा है और जब तक वे इस भौतिक शरीर के अन्दर है शरीर चलता है और जैसे ही यह जीव अर्थात आत्मा शरीर छोड़ देता है शरीर चल नहीं सकता है। परम प्रकृति को कृष्ण भगवान् की अन्तरङ्गा प्रकृति कहते हैं और इस भौतिक विश्व को बहिरङ्गा प्रकृति कहते हैं। इस सांसारिक प्रकृति के बाहर अन्तरङ्गा प्रकृति है जो कि सर्वथा परम है। इसको प्रायोगिक ज्ञान से नहीं समझा जा सकता है। हम दूरदर्शी यन्त्र से करोड़ों तारे देख सकते हैं परन्तु हम उनके समीप नहीं पहुँच सकते हैं । हमें अपनी सीमा समझनी चाहिए। यदि हम इस भौतिक विश्व को अपने प्रायोगिक ज्ञान से नहीं समझ सकते हैं तो भगवान उनके राज्य को समझने की क्या सम्भावना? यह प्रायोगिक रूप से असम्भव है। हमें भगवद् गीता सुनकर ही समझना होगा। हम प्रायोगिक विधि से नहीं समझ सकते हैं कि हमारे पिता कौन हैं; हमें अपनी माँ के शब्दों को सुनना होगा और विश्वास करना होगा। यदि हम विश्वास नहीं करते हैं तो जानने की कोई विधि नहीं है। यदि हम कृष्ण भावना के अभ्यास में लगे रहें तो कृष्ण भगवान् और उनके अलौकिक धाम के सभी समाचार प्रकाशित हो जायेंगे। ___'परः तु भावः' के माने हैं परम प्रकृति और अव्यक्त के माने है जिसे हम नहीं देख सकते हैं। हम देख सकते हैं कि यह भौतिक विश्व पृथ्वी, सूर्य, तारों और अन्य लोकों का बना है। इस विश्व के बाहर दूसरी प्रकृति है जो सनातन है। 'अव्यक्तात् सनातनः।' इस प्रकृति का प्रारम्भ है और अन्त है, परन्तु परम प्रकृति सनातन है। न तो उसका प्रारम्भ ही है और न अन्त ही। यह कैसे सम्भव है ? जब बादल आकाश में आता है तो ऐसा लगता है कि उसने सम्पूर्ण आकाश को ढक लिया है