Book Title: Janma Aur Mrutyu Se Pare
Author(s): A C Bhaktivedant
Publisher: Bhaktivedant Book Trust

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Page 42
________________ ३५ होता है और जो वहाँ पहुँच जाता है वह इस संसार में फिर वापिस नहीं आता है।" वैकुण्ठ लोक को अव्यक्त कहते हैं क्योंकि उसे इस सांसारिक इन्द्रियों से नहीं देखा जा सकता है। अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ (भ.गी. ८:२१) “ये परम निवास स्थान अव्यक्त और न नाश होने वाला कहलाता है यही परम उद्देश्य है। जब कोई वहाँ जाता है वह फिर वापिस नहीं आता है। यह मेरा परम धाम है।" - इस श्लोक में महान् यात्रा की ओर संकेत है। हमें बाहरी आकाश में छेद करके बाहर जाने योग्य होना होगा, फिर इस सांसारिक विश्व को पार करके, इसके आवरणों में छेद करके वैकुण्ठ में प्रवेश करना होगा। इस पृथ्वी से कुछ हजार मील बाहर जा कर फिर वापिस आने का कोई प्रश्न नहीं है। ऐसी यात्रा कोई वीरता पूर्ण नहीं है। हमें सम्पूर्ण सांसारिक विश्व को पार करना होगा। हम यह यात्रा हवाई जहाज से नहीं कर सकते हैं बल्कि कृष्ण भावना से कर सकते हैं। जो कृष्ण भावना में मस्त हैं, जो मृत्यु काल में कृष्ण भगवान् के विषय में सोचते हैं वे तुरन्त वहाँ पहुँच जाते हैं। यदि हम वैकुण्ठ जाना चाहते हैं और पूर्ण ज्ञानमय सनातन आनन्दमय जीवन पाना चाहते हैं तो हमें सच् चिद् आनन्द शरीर अभी ही उत्पन्न करना होगा। यह कहा गया है कि कृष्ण भगवान् का शरीर सच् चिद् आनन्द है- “ईश्वर: परमः कृष्णः सच् चिद् आनन्द विग्रहः" -हमारे पास ऐसा. ही सनातन, ज्ञान और आनन्द से पूर्ण शरीर है परन्तु वह बहुत छोटा है और भौतिक पोशाक से आवरित है। किसी भी प्रकार यदि हम इस असत्य पोशाक . को छोड़ने योग्य हो जायें तो हम वैकुण्ठ पहुँच सकेंगें। यदि एक बार हम वहाँ पहुँच जायें तो वापिस आना जरूरी नहीं है।

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