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भाग को बदलने की और चेतना जाग्रत करने की कोई सम्भावना नहीं है। आत्मा शरीर से भिन्न है, जब तक आत्मा है शरार चलता है। परन्तु आत्मा की अनुपस्थिति में शरीर के चलने की कोई सम्भावना नहीं है। - क्योंकि हम आत्मा को अपनी इन्द्रियों से नहीं देख पाते हैं इसलिए हम उसे नहीं मानते हैं। परन्तु वास्तव में अनेक चीजें हैं जिन्हें हम नहीं देख सकते हैं। हम हवा नहीं देख सकते हैं, रेडियो तरंगे या शब्द या ध्वनि भी नहीं देख सकते हैं और न हम अपनी अपूर्ण आँखों से बहुत छोटे कीड़े ही देख सकते हैं,परन्तु इसके माने यह नहीं है कि वे वहाँ नहीं हैं। सक्ष्मदर्शी यन्त्र तथा अनेक यन्त्रों से हम बहत चीजें देख सकते हैं जिन्हें हम पहले अपनी अपूर्ण इन्द्रियों से न देख सकने के कारण मना करते थे। क्योंकि आत्मा जो कि अणु के बराबर है और जिसे हम अपनी इन्द्रियों और यन्त्रों से नहीं देख सकते हैं, इससे हमें यह सारांश नहीं निकालना चाहिए कि आत्मा नहीं है। फिर भी इसे इसके लक्षणों और प्रभाव से देख सकते हैं। भगवद्गीता में कृष्ण भगवान् कहते हैं कि हमारे सभी दुःख हमारे शरीर के साथ हमारी गलत पहचान के कारण
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तास्तितिक्षस्व भारत।।
(भ.गी.२.१४) "ओ कुन्ती के पुत्र,परिवर्तित होने वाली गर्मी और ठण्डक,सुख और दुःख का आना और उसका कुछ समय के बाद, चला जाना शीत और ग्रीष्म ऋतुओं की तरह है जोकि इन्द्रियों के स्पर्श के कारण उत्पन्न होते हैं। हे भरत के वंशज, हर किसी को शान्ति पर्वक इसे सहन करना चाहिए।" ग्रीष्म ऋतु में पानी को छुकर हमें आनन्द आता है और शीत ऋतु में