Book Title: Jainetar Drushtie Jain
Author(s): Amarvijay
Publisher: Dahyabhai Dalpatbhai

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Page 10
________________ ( ३ ) सत्य धर्मनो आश्रय मेळवीए तो जरुर आपणे आपणा आत्माने आ भवना तेमज परभवना जोखममां पडतो बचावी शकीए. हवे ते प्राचीनकालथी चालतो आवेलो खरो सत्यधर्म कयो हशे ? अने तेमां केवा केवा प्रकारना तत्त्वो समायेला हो ! विगेरे विचारो को त्राहित मध्यस्थ पुरुषोनी--दृष्टिथी विचारीये तो जरूर सत्याऽसत्यनो निर्णय करी शकीये. ते सत्यासत्यनो निर्णय क्यारे करी शकीये के ज्यारे आपणा दुराग्रहने छोडी दइ, माध्यस्थपणानी बुद्धिधी पुरूतपणे विचार करीये तो, अवश्य आपणा आत्माने अधोमार्गमां पडताने रोकी सत्यधर्म उपर चढावी शकीए, ए शिवाय बीजो कोइ पण सुगम रस्तो वामां आवतो नथी ॥ सत्यधर्मना मार्गने शोधवानो उपाय ए छे के धर्म बे प्रकारना हेतुथी चालतो आवेलो होय छे - एक धर्म अल्पज्ञोथी प्रवर्त्तमान स्वार्थसाधक, अने बीजो सर्वज्ञोथी प्रवर्त्तमान परमार्थ - पोषक. जो के स्वार्थ साधक धर्ममां परमार्थनी वातो न होय तो तेने कोइ पण मान आपे नहीं, माटे तेमां परमार्थनी वातो प्रसंगने अनुसरीने लीघेली तो होयज पण ज्यारे बारीक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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