Book Title: Jainetar Drushtie Jain
Author(s): Amarvijay
Publisher: Dahyabhai Dalpatbhai

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Page 12
________________ ( ५ ) • जूवो के धर्मनो विषय अगाध छे तेमज प्रपंची पंथो पण घणा छे, छतां पण हिंदुओना धर्मोनो विचार करी जोतां १ वैदिक २ जैन. अने ३ बौद्ध. ए त्रण धर्मोज घणा प्राचीनकालथी विस्तारपणे चालता आवेला नजरे पडे छे तेमज तेमना तत्त्वग्रंथोनो विस्तार पण जाणवा जेवोज होय छे. बाकीना पंथो तेणे धर्मोथी किंचित् किंचित् पोताने मन गमता विचारोने ग्रहण करी प्रसिद्ध थयेला छे एम जणाइ आवे छे. प्रथम अमोए कं हतुं के एक धर्म स्वार्थसाधक अने बीजो धर्म " परमार्थपोषक " तो हवे एनो सामान्यपणे विचार करी जोतां - इंद्रियोनाज सुखने माटे तेमज - धन, पुत्र, कलत्रादिक ऐहिक सुखना माटे तेमज परलोकमां राज्यादिक संपदा मेलववा अथवा इंद्रादिकनी पदवी मेलववाने माटे मुख्यपणे शास्त्रोनुं बंधारण थयेलुं होय, ते धर्मशास्त्रने स्वार्थसाधक तरीके मानवामां हरकत आवे नहीं. अने इंद्रियोना विषयनी सुख प्रवृत्तिथी पोताना आत्माने हटाववाने माटे, तेमज धन पुत्रादिकना मोहथी विरक्त थइ आत्मतत्त्व मेलववानी प्रवृत्ति थवाने माटे, जे शास्त्रोनी रचना थएली होय, ते शास्त्रो " परमार्थपोषक " धर्म तरीकेनांज मनाय. कारण के - सर्व कर्मोथी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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