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करुणा : जीवकी एक शुभ परिणति
करुणाको सभी धर्मों में स्वीकार किया गया और उसे धर्म माना गया है । जैन धर्ममें भी वह स्वीकृत है । परन्तु वह जीवके एक शुभ भाव (परिणाम) के रूपमें अभिमत है। उसे धर्म नही माना । धर्म तो अहिंसाको बताया गया है । अहिंसा और करुणामें अन्तर है। अहिंसामें रागभाव नहीं होता। वह भीतरसे प्रकट होती है और स्वाभाविक होती है। अतएव वह आत्माकी विशुद्ध परिणति मानी गयी है । पर करुणा जीवके, रागके सद्भावमें, बाहरका निमित्त पाकर उपजती है। अतएव वह नैमित्तिक एव कादाचित्क है, स्वाभाविक तथा शाश्वत नही ।
करुणा, अनुकम्पा, कृपा और दया ये चारो शब्द पर्यायवाची है, जो अभाव अथवा कमीसे पीडित प्राणीको पीडाको दूर करनेके लिए उत्पन्न रागात्मक सहानुभूति अथवा सहानुभूतिपूर्वक किये जानेवाले प्रयत्नके अर्थमें व्यवहृत होते है। आचार्य कुन्दकुन्दने करुणाका स्वरूप निम्म प्रकार दिया है
तिसिद वुभुविखद वा दुहिद दळूण जो दुहिदमणो ।
पडिवज्जदि त किवया तस्सेसा होदि अणुकपा ॥ 'जो प्याससे तडफ रहा है, भूखसे विकल हो रहा है और असह्य रोगादिकी वेदनासे दुखी हो रहा है उसे देखकर दुःखी चित्त होना अनुकम्पा-करुणा है।'
इसकी व्याख्यामें व्याख्याकार अमृतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्यने लिखा है'कञ्चिदुदन्यादिदु खप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिविषीर्काकुलितचित्तत्वमज्ञानिनोऽनुकम्पा ।
ज्ञानिनस्त्वधस्तनभमिकास विहरमाणस्य जन्मार्णवनिमग्नजगदवलोकनान्मनाग्मन खेद इति ।। ('करुणा पात्रभेदसे दो प्रकारको है-एक अज्ञानीकी और दूसरी ज्ञानीकी । अज्ञानीकी करुणा तो वह है जो प्यास आदिके दु खसे पीडितको देखकर दयाभावसे उसके दुखको दूर करनेके लिए चित्तमें विकलता होती है । उसकी यह करुणा चूंकि उस प्यासादिसे दुखी प्राणीके भौतिक शरीर सम्बन्धी दुखको ही दूर करने तक होती है-उसके आध्यात्मिक (राग, द्वेष, मोहादि) दुखको दूर करने में वह अक्षम है । अतएव वह अज्ञानीकी करुणा अर्थात स्थूल करुणा बतलायी गयी है। जिसे शरीर और आत्माका भेदज्ञान हो गया है, पर अभी बहुत ऊंचे नहीं पहुंचा है-कुछ नीचेकी श्रेणियोमें चल रहा है, उस ज्ञानी (साधु, उपाध्याय और आचार्य) को जन्म सन्ततिके अपार दु खोमें डबे प्राणियोको देखकर जो उनके दुखकी निवृत्तिके लिए कुछ खेद होता है वह ज्ञानीकी करुणा है और उपर्युक्त अज्ञानीकी करुणासे वह सूक्ष्म एव विवेकपूर्ण है। किन्तु उसमें ईपत् रागभाव रहता ही है, भले ही वह लक्ष्यमें न आये । और इसलिये अज्ञानी और ज्ञानी दोनोकी करुणाएं पुण्यकर्मके आस्रवकी कारण हैं। कुन्दकुन्दने पुण्यासवका स्वरूप इस प्रकार दिया है
रागो जस्स पसत्थो अणकपाससिदो य परिणामो।
चित्ते णत्थि कलुस्स पुण्ण जीवस्स आसवदि ॥२ १ पचास्तिकाय, गाथा १३७ ।
२ पचास्ति०, गा० १३५ ।
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