________________
सम्पूर्ण अन्तरायके क्षयसे वीतरागोंके जो आत्माका अभयदान स्वरूप प्रकट होता है वही उनकी परमा दया है और वह दया उनके मोहाभावमें होती है, क्योकि उस समय उनके न किसीके प्रति राग होता है और न किसीके प्रति द्वेष । इसके सिवाय वीतरागोकी द्वितोपदेशमें प्रवत्ति उनके विद्यमान तीर्थकरनामकर्मके उदयसे होती है और उस हितोपदेश-प्रवृत्तिसे ही परदु खनिराकरण सिद्ध हो जाता है । अव जैन धर्ममें अर्हतो (वीतरागो) की हितोपदेशमें प्रवृत्ति बुद्ध या ईश्वरकी तरह करुणासे स्वीकार नही की गयी। अतएव जैन दर्शनमें वीतराग परमात्माको अहिंमक माना गया है, कारुणिक नहीं । आचार्य समन्तभद्रने अहिंसाको जगद्विदित परमब्रह्म बतलाया है- 'अहिंसा भूतानां जगति विवित ब्राह्म परमम् ।'-(स्वयम्भू०)
इस प्रकार कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलङ्क, विद्यानन्द जैसे युगप्रधान समर्थ शास्त्रकारोंके विवेचनसे अवगत होता है कि करुणा मोहविशेष (शुभेच्छा) रूप होनेसे वह परमार्थत धर्म नही है-वह आत्माका एक विकार ही है । शुभपरिणतिरूप होनेसे करुणाको व्यवहारत धर्म कहा गया है । कुन्दकुन्दने स्पष्ट कहा है कि फरुणासे पुण्यसचय होता है। इस पुण्यसे भोग प्राप्त होते हैं और भोगोसे आसक्ति तथा आसक्ति जन्मजन्मान्तरोत्पत्तिका कारण है। शास्त्रोमें कही-कही 'धर्मस्य मूल दया' जैसे प्रतिपादनो द्वारा जो दयाको धर्मका मूल या धर्म कहा गया है वह केवल अशुभसे निवृत्ति तथा शुभमें प्रवृत्ति कराने के प्रयोजनसे कहा है। जिससे व्यक्ति अशुभसे वचा रहे और शुभमें प्रवृत्त रहे । शुभमे शुद्धकी ओर जाया जा सकता है । अत जैनधर्ममें व्यवहार और निश्चय अथवा उपचार और परमार्थ या उपाधि और निरुपाधि इन दो दृष्टियोंको ध्यानमें रख कर प्रतिपादन है। निष्कर्ष यह कि करुणा व्यवहारत धर्म है, परमार्थत नही। परमार्थत अहिंसा धर्म है।
-२२