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चारित्रका महत्त्व
जैन दर्शनमें चारित्रका महत्त्व बहुत अधिक है। आत्मगवेषी मुमुक्षुको इस अनाद्यनन्त दुखमय ससारसे छूटनेके लिये चारित्रकी उपासना बहुत आवश्यक है । जब तक चारित्रकी उपासना नहीं की जाती तब तक यह जीव ससारके अनेक दु खोका शिकार बना रहता है और ससारमें परिभ्रण करता रहता है। यह निश्चित है कि प्रत्येक प्राणधारी इस परिभ्रमणसे बचना चाहता है और सुखकी खोजमें फिरता है । परन्तु इस परिभ्रमणसे बचनेका जो वास्तविक उपाय है उसे नही करता है। इसीलिये सुखी बनने के स्थानमें दुखी बना रहता है।
यों तो ससारके सभी महापुरुषोने जीवोको उक्त परिभ्रमणसे छुटाने और उन्हें सुखी बनानेका प्रयत्न किया है । पर जैन धर्मके प्रवर्तक महापुरुषोने इस दिशामें अपना अनूठा प्रयत्न किया है । यही कारण है कि वे इस प्रयत्नमें सफल हये है। उन्होने ससार-व्याधिसे छुटाकर उत्तम सुखमें पहुँचाने के लक्ष्यसे ही जैन धर्मके तत्त्वोका अपनी दिव्य वाणी द्वारा सम्पूर्ण जीवोको उपदेश दिया है। उनका यह उपदेश धाराप्रवाह रूपसे आज भी चला आ रहा है। इसके द्वारा अनन्त भव्य जीवोने कैवल्य और नि श्रेयस प्राप्त करके आत्मकल्याण किया है।
प्राय सभी आस्तिक दर्शनकारोने सम्पूर्ण कर्मबन्धनसे रहित आत्माकी अवस्था-विशेषको मोक्ष माना है। हम सब कोई कर्मबन्धनसे छूटना चाहते हैं और आत्माकी स्वाभाविक अवस्था प्राप्त करना चाहते है। अत हमें चाहिये कि उसकी प्राप्तिका ठीक उपाय करें। जैन दर्शनने इसका ठीक एव चरम उपाय चारित्रको बताया है। यह चारित्र दो भागोमें विभक्त किया गया है -१-व्यवहार चारित्र और २-निश्चय चारित्र । अशुभ क्रियाओसे हटकर शुभ क्रियाओमें प्रवृत्त होना सो व्यवहार चारित्र है । दूसरेका बुरा विचारना, उसका अनिष्ट करना, अन्याय-पूर्वक द्रव्य कमाना, पांच पापोका सेवन करना आदि अशुभ क्रियायें है । दूसरो पर दया करना, उनका परोपकार करना, उनका अच्छा विचारना, पांच पापोका त्याग, छह आवश्यकोका पालन आदि शुभ क्रियायें है। ससारी प्राणी अनादि कालसे मोहके अधीन होकर अशुभ क्रियाओमें रत है। उसे उनसे हटाकर शुभ क्रियाओमें प्रवृत्त कराना सरल है। किन्तु शुद्धोपयोग या निश्चयमार्ग पर चलाना कठिन है। जिन अशुभ क्रियाओके सस्कार खूब जमे हैं उन्हें जल्दी दूर नही किया जा सकता है। रोगीको कहवी दवा, जो कडवी दवा नही पीना चाहता है, मिश्री मिलाकर पिलाई जाती है । जब रोगी मिश्रीके लोभसे कडवी दवा पीने लगता है तब उसे केवल कडवी दवा ही पिलाई जाती है। ससारी प्राणी जब अनादि कालसे कषायो और विषयोंमें लिप्त रहनेसे उसकी वासनाओंसे ओतप्रोत है तो निश्चय मार्गमें नही चल सकता। चलानेकी कोशिश करने पर भी उसकी उस ओर अभिरुचि नहीं होती। अत उसे पहिले व्यवहारमार्ग या व्यवहार चारित्रका उपदेश दिया जाता है । आचार्य नेमिचन्द्र व्यवहार चारित्रका लक्षण करते हुये कहते हैं -
असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वद-समिदि-गुत्तिरूव ववहारणया दु जिणभणिय ॥