Book Title: Jain Tattvagyan Ki Ruprekha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 4
________________ प्रकाशकीय 'बिन्दु में सिंधु समाय' की कहावत कभी-कभी बहुत सहज रूप में चरितार्थ होती है। जैन तत्त्वज्ञान का अक्षय सागर जो हजारों पृष्ठों में भी परिपूर्ण नहीं बताया जा सकता उसको कुल २०-२२ पृष्ठों में बता पाना तो असंभव ही है किंतु विशेषता उसमें है कि अक्षय ज्ञान सागर को शब्दों के लघुपट में भरकर प्रस्तुत किया जाय और उसमें संपूर्ण रसास्वाद का अनुभव हो। उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी ने प्रस्तुत पुस्तक में यही चमत्कार किया है। उनका ज्ञान मात्र पुस्तकीय नहीं आत्मसात् ज्ञान है, अनुभव रस में रमा हुआ है इसलिए वे बड़ी से बड़ी गहन बातों को बहुत ही अल्प शब्दों में और बड़े सहज रूप में प्रस्तुत करने में समर्थ हैं । प्रस्तुत लघु पुस्तिका में

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