Book Title: Jain Tattvagyan Ki Ruprekha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

Previous | Next

Page 13
________________ संकट आदि आ गये हैं और मुझे अनचाहे ही भोगने पड़ रहे हैं, इनका भी कोई कारण है क्या ? ५. क्या यह दुःख मेरे ही किये हुए हैं ? यदि ऐसा है तो मैंने दुःखों का सर्जन कैसे किया ? ६. यह दुःख मुझसे अथवा किसी मानव से क्यों और कैसे चिपकते हैं ? ७. क्या ऐसा संभव है कि नये दुःखों का उपार्जन न हो ? यदि ऐसा हो सकता है तो उसका उपाय क्या हो सकता है ? ८. क्या इन दुखद बंधों को पृथक् किया जा सकता है ? उसका उपाय क्या है ? __६. क्या इन सुख-दुःखों से पूर्ण रूप से छुटकारा हो सकता है ? सामान्यरूप से अध्यात्मजिज्ञासु के मन-मस्तिष्क में यह नौ प्रकार के ही प्रश्न उठा करते हैं। इन प्रश्नों का समाधान विभिन्न मनीषियों ने अपनीअपनी विचारणा और मेधा के अनुसार दिया है। ( ४ )

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50