Book Title: Jain Tattvagyan Ki Ruprekha Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 48
________________ पुरुषार्थ की ज्योति जाग्रत हो जाती है और अपने बल, वीर्य के संबल से वह दृढ़तापूर्वक आत्मोन्नति की दिशा में प्रगति करता हुआ अपने चरम लक्ष्यसिद्धि-मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । ( ३६)Page Navigation
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