Book Title: Jain Tattvagyan Ki Ruprekha Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 36
________________ ५. बन्ध तत्व आस्रव अर्थात् आते हुए कर्मों-कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह हो जाना, चिपक जाना, एकमेक हो जाना, बँध जाना, बंध है। इसके चार भेद हैं-(१) प्रकृति, (२) प्रदेश, (३) अनुभाव, और (४) स्थिति । जो कर्मपुद्गल आत्मा से बंधते हैं उनकी जो सम्पूर्ण प्रदेश राशि होती है, वह प्रदेशबंध है। उसमें ज्ञान दर्शन को आवरण करने का, सुख-दुःख देने का आदि कई प्रकार का स्वभाव निर्मित होता है, वह प्रकृतिबन्ध है । वे कर्मपुद्गल आत्मा के साथ कितने समय तक लगे (चिपके) रहेंगे, उस काल मर्यादा को स्थितिबन्ध कहा गया है और कर्मों की रस अथवा फल-प्रदान-शक्ति तीव्रता-मन्दता आदि अनुभाव बंध है । अनुभावबन्ध को हो रसबन्धअनुभाग बंध कहा गया है। परम्परागत रूप से इसके लिए मोतीचूर के ( २७ )Page Navigation
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