Book Title: Jain Tattvagyan Ki Ruprekha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 43
________________ ८. निर्जरा तत्व निर्जरा का अभिप्राय है-आत्मा के साथ जो कर्म बंधे हुए हैं, उनका आंशिक रूप से झड जाना, खिरना, अलग हो जाना। निर्जरा दो प्रकार से होती है-(१) इच्छापूर्वक और (२) अनिच्छापूर्वक ।। ___ अनिच्छा से निर्जरा वह होती है, जिसके लिए आत्मा को कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, बंधे हुए कर्म फल देकर तथा स्थिति पूर्ण होते ही स्वयं ही झड़ जाते हैं, यह अकाम निर्जरा है। सकाम निर्जरा सप्रयास होती है । आत्मा तपस्या आदि विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों से कर्मों को क्षय कर देता है। इस प्रकार से कर्म-क्षय को सकाम निर्जरा कहा जाता है। अविपाक-सविपाक आदि इन्हीं निर्जराओं के अन्य नामहैं। ( ३४ )

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