Book Title: Jain Tattvagyan Ki Ruprekha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 38
________________ (१) बढ-यह साधारण बंध है, उदाहरणतः सुइयों का एक स्थान पर एकत्र हो जाना । सघनता की स्थिति । (२) स्पृष्ट-आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का संश्लिष्ट हो जाना। जैसे-सुइयों को धागे से बांध दिया जाता है। इ-स्पष्ट-इस दशा में आत्म-प्रदेश और कर्मपुद्गल दूध पानी के समान एकमेक हो हो जाते हैं। उदाहरणतः सुइयों को लोहे के तार से बाँध देना। (४) निधत्त -आत्म-प्रदेशों और कर्मपुद्गलों का अत्यन्त प्रगाढ़ सम्बन्ध हो जाना। यथासुइयों को अग्नि में तपाकर फिर हथौड़े से पीट देना। . __ यह अत्यन्त प्रगाढ़ बंध है। इसका फल आत्मा को भोगना ही पड़ता है। ( २६ )

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