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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अपर्याप्तक:-जिम जीव की पर्याप्तियों पूरी न हों वह अपर्याप्तक कहा जाता है।
जीव तीन पर्याप्तियों पूर्ण करके ही मरते हैं पहले नहीं क्योंकि आगामी भव की आयु बांध कर ही मृत्यु प्राप्त करने हैं। और आयु का बन्ध उन्हीं जीवों को होता है जिन्होंने आहार, शरीर और इन्द्रिय ये तीन पर्याप्तियों पूर्ण करली हैं।
... (ठाणांग २ मूत्र ७६) मंत्री:-जिन जीवों के मन हो वे मंत्री हैं। अमंजी:-जिन जीवों के मन नहीं हो वे अमंज्ञी हैं।
(ठाणांग २ सूत्र ७६ ) परित मंमारी:-जिन जीवों के भव परिमित हो गये हैं । वे
पग्नि मंमारी हैं । अर्थान् अधिक से अधिक अर्द्ध पुद्गल पगवतन काल के अन्दर जो अवश्य मोक्ष में जावेंगे वे
परित (अल्प) मंमारी हैं। अनन्त मंमार्गः-जो जीव अनन्त काल तक मंमार में परिभ्रमण
करते रहेंगे अर्थात् जिन जीवों के भवों की संख्या मीमित नहीं हुई है वे अनन्न संमागे हैं । यथाःजे पुण गुरुपडिणीया बहुमोहा, समबला कुसीलाय । असमाहिणा मांति उ, ने हुंति अणंत संसारी ॥१॥
(आतुर प्रत्याख्यान पयन्ना) भावथः-गुरु के अवणवाद आदि कह कर प्रतिकूल आचरण करने वाले, बहुत मोह वाले, शवल दोष वाले, कुशीलिये
और असमाधि मरण स मरने वाले जीव अनन्त संसारी होते हैं।
(ठाणांग २ सूत्र ७६)