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श्री जैन सिद्धान्त बोज मंग्रह
ज्ञान या मतिज्ञान कहलाता है ।
(पनवरणा पद २६ ) (ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७१)
श्रुतज्ञानः - शास्त्रों को सुनने और पढ़ने से इन्द्रिय और मन के
द्वारा जो ज्ञान हो वह श्रुतज्ञान है ।
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( भगवती शतक ८ उद्देशा २ ) अथवा
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मतिज्ञान के बाद में होने वाले एवं शब्द तथा अर्थ का विचार करने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं । जैसे "घट" शब्द सुनने पर उसके बनाने वाले का उसके रङ्ग और आकार आदि का विचार करना । ( ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७१ ) ( कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग )
( नन्दी सूत्र )
१६- श्रुतज्ञान
के दो भेद:(१) अङ्गप्रविष्ट श्रुतज्ञान । ( २ ) अंग बाह्य श्रुतज्ञान । अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान -- जिन आगमों में गणधरों ने तीर्थंकर भग वान् के उपदेश को ग्रथित किया है । उन आगमों को प्रविष्ट श्रुतज्ञान कहते हैं। आचाराङ्ग आदि बारह अङ्गों का ज्ञान अङ्ग प्रविष्ट श्रुतज्ञान है ।
अङ्गवाद्य श्रुतज्ञान:-- द्वादशांगी के बाहर का शास्त्रज्ञान अङ्ग बाह्य श्रुतज्ञान कहलाता है । जैसे दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि ।
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( नन्दी सूत्र ४४ )
( ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७१ )