________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (5) यथाच्छन्द-उत्सूत्र (सूत्र विपरीत) की प्ररूपणा करने वाला और सूत्र विरुद्ध आचरण करने वाला, गृहस्थ के कार्यों में प्रवृत्ति करने वाला, चिड़चिड़े स्वभाव वाला, आगम निरपेक्ष, स्वमति कल्पित अपुष्टालम्बन का आश्रय लेकर सुख चाहने वाला, विगय आदि में आसक्त, तीन गारव से गर्वोन्मत्त ऐसा साधु यथाच्छन्द कहा जाता है। इन पांचों को वन्दना करने वाले के न निर्जरा होती है और न कीर्ति ही / वन्दना करने वाले को कायक्लेश होता है और इसके सिवा कर्म-बन्ध भी होता है / पासत्थे आदि का मंसर्ग करने वाले भी अवन्दनीय बताये गये हैं। (हरिभद्रीयावश्यक वन्दनाध्ययन पृष्ठ 518) (प्रवचन सारोद्धार पूर्वभाग गाथा 103 से 123) ३४८--पास जाकर वन्दना के पाँच असमय(१) गुरु महाराज अनेक भव्य जीवों से भरी हुई सभा में धर्म कथादि में व्यग्र हों। उस समय पास जाकर वन्दना न करना चाहिये / उस समय वन्दना करने से धर्म में अन्त राय लगती है। (2) गुरु महाराज किसी कारण से पराङ्मुख हों अर्थात् मुंह फेरे हुए हों उस समय भी वन्दना नहीं करनी चाहिये क्योंकि उस समय वे वन्दना को स्वीकार न कर सकेंगे। (3) क्रोध व निद्रादि प्रमाद से प्रमत्त गुरु महाराज को भी वन्दना (4) आहार करते हुए गुरु महाराज को भी वन्दना न करनी