________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संवह 363 (5) अवविज्ञानी पुरों (नगरों) में पुराने विस्तीर्ण,बहुमूल्य रत्नादि से भरे हुए खजाने देखता है। उनके स्वामी नष्ट हो गये हैं। स्वामी की सन्तान का भी पता नहीं है न उनके कुल, गृह आदि ही हैं / खजानों के मार्ग भी नहीं है और 'यहाँ खजाना है। इस प्रकार खज़ाना का निर्देश करने वाले चिह्न भी नहीं रहे हैं। इसी प्रकार ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कर्बट, द्रोणमुख, पाटन, आश्रम, संवाह, सन्निवेश, त्रिकोण मार्ग, तीन चार और अनेक पथ जहाँ मिलते हैं ऐसे मार्ग, राजमार्ग, गलिये, नगर के गटर (गन्दी नालियां), श्मशान, सूने घर, पर्वत की गुफा, शान्ति गृह, उपस्थान गृह, भवन और घर इत्यादि स्थानों में पड़े हुए बहुमूल्य रत्नादि के निधान अवधिज्ञानी देखता है / अदृष्ट पूर्व इन निधानों को देखकर अनधिज्ञानी विस्मय एवं लोभवश चंचल हो उठता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 364) ३७८--ज्ञानावरणीय की व्याख्या और उसके पाँच भेदः-- __ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को ज्ञानावरणीय कहते हैं / जिस प्रकार आँख पर कपड़े की पट्टी लपेटने से वस्तुओं के देखने में रुकावट हो जाती है। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभाव से आत्मा को पदार्थों का ज्ञान करने में रुकावट पड़ जाती है / परन्तु यह कर्म आत्मा को सर्वथा ज्ञानशून्य अर्थात् जड़ नहीं कर देता / जैसे घने बादलों से सूर्य के ढंक जाने पर भी सूर्य का, दिन रात बताने वाला, प्रकाश तो रहता ही है। उसी प्रकार ज्ञाना