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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला करता हुआ जीव बारहवें क्षीण मोह गुणस्थान में पहुंचता है।
(विशेषावश्यक गाथा १३१३) (द्रव्यलोक प्रकाश तीसरा सर्ग
श्लोक १२१८ से १२३४ तक) (कर्म ग्रन्थ दूसरा भाग, भूमिका) (श्रावश्यक मलयगिरि गाथा ११६ से १२३)
(अर्द्ध मागधी कोप भाग दूसरा (खवर्ग) ५७:-देवता के दो भेदः-(१) कल्पोपपन्न (२) कल्पातीत । कल्पातीत:-जिन देवों में छोटे बड़े का भेद हो । वे कल्पोपपन्न
देव कहलाते हैं । भवनपति से लेकर बारहवें देवलोक तक
के देव कल्पोपपन्न हैं। कल्पातीत:-जिन देवों में छोटे बड़े का भेद न हो । जो सभी
'अहमिन्द्र' हैं। वे कल्पातीत हैं। जैसे नव प्रवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव ।
(तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ४) ५८:-अवग्रह के दो भेदः (१) अर्थावग्रह (२) व्यञ्जनावग्रह । अर्थावग्रहः-पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को अर्थावग्रह कहते हैं ।
अर्थावग्रह में पदार्थ के वर्ण, गन्ध आदि का ज्ञान होता है।
इसकी स्थिति एक समय की है। व्यञ्जनावग्रहः-अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अव्यक्त
ज्ञान व्यञ्जनावग्रह है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों का पदार्थ के साथ सम्बन्ध होता है तब "किमपीदम्" (यह कुछ है)। ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है । यही ज्ञान अर्थावग्रह है। इससे पहले होने वाला अत्यन्त अस्पष्टज्ञान व्यञ्जनावग्रह