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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२११ के मन को निश्चल करना ध्यान कहलाता है और केवली की काया को निश्चल करना ध्यान कहलाता है।
(आवश्यक अध्ययन ४) (कर्त्तव्य कौमुदी भाग २ शोक २११-२१६)
(ठाणांग ४ मृत्र २४१)
(नानागाव) २२६ शुक्लध्यान के चार लिङ्ग--
(१) अव्यथ । (२) अमम्मोह।
(३) विवेक । (३) व्युत्मगं । (१) शुक्लध्यानी परिपह उपमर्गों से डर कर ध्यान से चलित
नहीं होता । इसलिए वह लिङ्ग वाला है। (३) शुक्लध्यानी को सूक्ष्म अत्यन्त गहन विषयों में अथवा
देवादि कृत माया में मम्मोह नहीं होता । इस लिए वह
असम्मोह लिङ्ग वाला है। (३) शुक्लध्यानी आत्मा को देह से भिन्न एवं मव मंयोगों को
आत्मा से भिन्न समझता है । इस लिए वह विवेक लिङ्ग
वाला है। (३) शुक्लध्यानी निःमंग रूप से देह एवं उपधि का त्याग करता है। इस लिए वह व्युत्सर्ग लिङ्ग वाला है।
(आवश्यक अध्ययन ४)
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) २२७-शुक्ल ध्यान के चार आलम्बनः
जिन मत में प्रधान क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति इन चारों आलम्बनों से जीव शुक्ल ध्यान पर चढ़ता है ।