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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
साधुः - पंच महाव्रतधारी, सर्व विरति को साधु कहते हैं । ये तपस्वी होने से श्रमण कहलाते हैं । शोभन, निदान रूप पाप से रहित चित्त वाले होने से भी श्रमण कहलाने हैं । ये ही स्वजन परजन, शत्रु मित्र, मान अपमान आदि में समभाव रखने के कारण समण कहलाते हैं।
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इसी प्रकार साध्वी का स्वरूप है | श्रमणी और समणी इनके नामान्तर हैं ।
श्रावक : - देश विरति को श्रावक कहते हैं । सम्यग्दर्शन को
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प्राप्त किये हुए, प्रतिदिन प्रातः काल साधुओं के समीप प्रमाद रहित होकर श्रेष्ठ चारित्र का व्याख्यान सुनते हैं । श्रावक कहलाते हैं ।
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अथवा:
"श्री" अर्थात् सम्यग् दर्शन को धारण करने वाले
"व" अर्थात् गुणवान्, धर्म क्षेत्रों में धनरूपी बीज को बोने वाले, दान देने वाले ।
"क" अर्थात् क्लेश युक्त, कर्म रज का निराकरण करने वाले जीव " श्रावक ' कहलाते हैं ।
" श्राविका " का भी यही स्वरूप है ।
( ठाणांग ४ सूत्र ३६३ टीका ) १७८ - श्रमण ( समण, समन ) की चार व्याख्याएं (१) जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय है । उसी प्रकार सभी जीवों को दुःख अप्रिय लगता है । यह समझ कर तीन करण, तीन योग से जो किसी जीव की हिंसा नहीं करता