Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ ( १५ ) भविजनको भव-कूपते, तुम ही काढनहार। दीनदयाल अनाथपति, आतम गुणभडार ||७r चिदानन्द निर्मल कियो, धोय कर्मरज मैल । सरल करी या जगत मे, भविजन को शिवगैल ॥८॥ तुम पदपकज पूजते, विघ्न रोग टर जाय। शत्र मित्रता को धरै, विष निरविषता थाय ॥lth चक्री खगवर इद्रपद, मिले आपतै आप। अनुक्रम करि शिवपद लहै, नेम सकल हनि पाप ॥१०॥ तुम बिन मैं व्याकुल भयो, जैसे जल बिन मीन । जन्म जरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ।।११. पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेय । अजन से तारे कुधी जय जय जय जिनदेव ॥१२॥ थकी नाव भवदधि विष तुम प्रभु पार करेय । खेवटिया तुम हो प्रभु, जय जय जय जिनदेव ॥१३॥ राग सहित जग मे रुल्यो, मिले सरागी देव । वीतराग भेट्यो अबै, मेटो राग कटेव ॥१४॥ कित निगौद कित नारकी, कित तियंच अज्ञान । आज धन्य मानुष भयो, पायो जिनवर थान ॥१५॥ तुमको पूजै सुरपती, अहिपति नरपति देव । धन्य भाग मेरो भयो, करन लग्यो तुम सेव ॥१६॥ अशरण के तुम शरण हो, निराधार आधार । मैं डूवत भवसिन्धु मे खेओ लगाओ पार ॥१७॥ इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान । अपनो विरद निहारि के, कोजे आप समान ॥१८॥ तुमरी नेक सुदृष्टित, जग उतरत है पार। हा हा डूव्यो जात हौ, नेक निहार निकार ॥१६॥ जो मैं कह हू और सो, तो न मिटै उरझार। मेरी तो तासो बनी, तातै करी पुकार ॥२०॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 175