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( १३ )
निरंतर,
कर दूर रागादिक आत्म को निर्मल करू । बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल, लहि चरित क्षायिक आचारू || आनन्दकन्द जिनेन्द्र वन, उपदेश को नित उच्चरू । आवै 'अमर' कब सुखद दिन, जब दुखद भवसागर तरू ॥४॥
(४) आराधना पाठ
भय
मैं देव नित अरहत चाहू, सिद्ध का सुमिरन मैं सुर गुरु मुनि तीन पद ये, साधुपद हिरदय धर्म करुणामयी जु चाहूँ, जहाँ हिंसा मैं शास्त्र ज्ञान विराग चाहूँ जासू मैं चौवीस श्री जिनदेव चाहूँ, और देव न मन जिन बीस क्षेत्र विदेह चाहूँ, वदिते पातक गिरनार शिखर सम्मेद चाहूँ, चम्पापुरी कैलास श्री जिन घाम चाहूँ, भजत बाजे भ्रम नव तत्त्व का सरवान चाहूँ, और तत्त्व न मन पट द्रव्य गुण पराजय चाहूँ, ठीक तासो पूजो परम जिनराज चाहूँ, और देव न तिहुकाल की मैं जाप चाहूँ, पाप नही लागे सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान चारित्र, सदा चाहूँ भाव दशलक्षणी मैं धर्म चाहूँ महा हर्ष उछाव सो ॥ सोलह जु कारन दुख निवारण, सदा चाहूँ प्रीति सो । मैं नित अठाई पर्व चाहूँ, महा मगल रीति सो ॥४॥ मैं वेद चारो सदा चाहू, आदि अन्त निवाह सो पाये धरम के चार चाहू, अधिक चित्त उछाह सो ॥ मैं दान चारो सदा चाहू, भुवनवशि लाहो लहूँ । आराधना मैं चारि चाहू, अन्त मे येही
चाहूँ
गहूँ ||५||
करों ।
धरीं ॥
रचना । परपच ना ॥ १ ॥
बसे ।
नसै || पावापुरी ।
जुरी ॥२॥
घरो ।
हरो ॥
कदा |
कदा ||३||
सो ।