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जैन शिलालेख - संग्रह
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४०४, ४३४ ) ।'
बलात्कारगण-सरस्वतीगच्छकी उत्तर भारतीय शाखाओंके तीन लेख इस सग्रहमै है ( क्र० ४४८, ४६०,४६८ ) । इनमें सन् १५०० में रत्नकीर्तिका तथा सन् १५३१ में धर्मचन्द्रका उल्लेस है ।
( आा ६ ) क्राणूर गण इस गणके उल्लेखोमे पहला दसवी सदीका है ( क्र० ९६ )। इसमें एक विस्तृत गुरुपरम्पराका वर्णन है किन्तु लेखके बीच-बीचमें घिस जानेसे इस परम्पराका ठोक ज्ञान नही होता । इम लेखमें मुनिचन्द्र आचार्यके एक शिष्यको कुछ दान मिलनेका उल्लेख है ।
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क्राणूर गणके तीन उपभेदोके उल्लेस मिले है - तिन्त्रिणी गच्छ, मेपपाषाण गच्छ तथा पुस्तकगच्छ । तिन्त्रिणी गच्छके ६ लेख है ( क्र० २१२, २९१, ३२३, ४७६, ५६५, ६१९ ) । पहले दो लेख वाहारवी सदीके हैं तथा इनमें मेघचन्द्र तथा पर्वतमुनि इन आचार्योंका वर्णन है । तीसरा लेख सन् १२०७ का है तथा इसमें अनन्तकोति भट्टारकको कुछ दान मिलनेका वर्णन है । अनन्तकोतिके पूर्ववर्ती छह आचार्योंके नाम भी इम १ इस परम्पराका वर्णन पहले सग्रहके क्र० ५७२ तथा ५८५ में भी है ।
२. पहले सग्रहमें ऐसे दो लेख हैं ( क्र० ६१७, ७०२ ) । क्र० ६१७ में इसे मढसारढ गच्छ पढा गया है, यह 'श्रीमद्शारद गच्छ'अर्थात् सरस्वती गच्छका ही रूपान्तर है । उत्तर भारतमें वलात्कारTest दस शाखाएँ १४वीं सदीसे २०वीं सदी तक विद्यमान थीं । इनका विस्तृत वृत्तान्त हमने 'भट्टारक सम्प्रदाय' में दिया है ।
३. पहले मग्रहमे क्राणूरगणका प्राचीनतम लेख सन् १०७४ का ( क्र० २०७ ) है ।
8 पहले सग्रहमें तिन्त्रिणीगच्छका पहला लेख सन् १०७५ का ( क्र० २०९ ) है ।