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जैनशिलालेख-संग्रह रविनन्दि-एलाचार्य इस परम्पराका वर्णन है। गग राजा मारसिंह २ ने एलाचार्यको एक ग्राम अर्पण किया था।'
सूरस्य गणके दो उपभेदोका पता चला है - कोकर गच्छ तथा चित्रकूटान्वय । कोरूर गच्छका एक ही लेख है (क्र० ११७ ) तथा इसमें सन् १००७ में अहणन्दि पण्डितका वर्णन है। चित्रकूटान्वयके १० लेख है । पहले लेखमें (क्र० १५३ ) सन् १०७१ में इस अन्वयके श्रीनन्दि पण्डितकी एक शिष्याको कुछ दान दिये जानेका वर्णन है। श्रोनन्दिकी गुरुपरम्परा इस प्रकार पी- चन्द्रनन्दि-दामनन्दि-सकलचन्द्रकनकनन्दि-श्रीनन्दि । श्रीनन्दि तथा उनके गुरुवन्धु भास्करनन्दिके समाघिलेख सन् १०७७-७८ के है (क्र० १६०)। इस अन्वयका तीसरा लेख (क्र० १५८ ) सन् १०७४ का है तथा इसमें अहणन्दिके शिष्य आर्य पण्डितको कुछ दान मिलनेका वर्णन है। अगले दो लेखोसे (क्र० २३७-३८ ) इस अन्वयकी एक परम्पराका पता चलता है जो इस प्रकार थी- वासुपूज्य-हरिणन्दि-नागचन्द्र। हरिणन्दि तथा नागचन्द्रको सन् ११४८ में कुछ दान मिला था। इस अन्वयके अन्य लेख अनिश्चित समयके है । इस प्रकार काई १४ लेखोसे सूरस्थ गणका अस्तित्व दसवी सदीसे धारहवी सदी तक प्रमाणित होता है।
(भा ५) वलगार-( बलात्कार )-गण - इस गणका पहला उल्लेख
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१. सूरस्थ गणका प्राचीन लेख पहले सग्रहमें सन् १०५४ का है
(ऋ० १८५)। २. पहले सग्रहने इन दोनों उपभेटोंका वर्णन नहीं है। वहाँ चित्र
कूटान्वयका सम्बन्ध वलगार गणसे मी पाया गया है (क्र० २०८) । कुछ लेखों में सेनगण और सूरस्थगणको (जिसे कही-कही शूरस्थ
भी कहा है ) अमिन्न माना है। इसका विवरण हमने 'महारक सम्प्रदाय के सनगण विषयक प्रकरणम दिया है।