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६७
अंक 1
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण दुव्वसण सीहसंघायसरहु, णवि याणहि किं णामेण भरहु ।
घत्ता। आउ जाहुंतहो मंदिरु णयणाणंदिरु सुकरकइत्तणु जाणई। ... सो गुणगणतत्तिल्लउ तिहुप्रणिभन्नड णिच्छउ पई सम्माणइं॥ १८ ॥
जो विहिणा णिम्मिउं कव्वपिंडु, तं णिसुणेवि सो संचलिउ खंडु । आवंतु दिड भरहेण केम, वाईसरिसरिकल्लोलु जेम ॥ १६ ॥ पुणु तासु तेण विरइउ पहाणु, घरु प्रायहो अब्भागयविहाणु ।" संभासणु पियवयणेहिं रम्मु, हिम्मुक्कडंभु णं परमधम्मु ॥२०॥ तुहुं आयउ णं गुणमणि णिहाणु, तुहुं पायउ णं पंकयहो भाणु । पुणु एम भणेप्पिणु मणहराई, पहखीणरीणतणु सुहयराई ॥ २१ ॥ वर राहाणविलेवणभूसणाई, दिरणई देवंगइणिवसणाई। अञ्चंत रसालई भोयणाई, गलियाई जाम कावय दिणाई ॥ २२॥ देवासुरण कइ भाणउं ताम, भो पुप्फयंत ससिलिहियणाम । णियसिरिविसेसणिजियसुरिंदु, गिरिधारु वीरु भइरव गरिंदु ॥२३॥ पइ मरिणउं वरिणउं वीरराउ, उप्पण्णउं जो मिच्छत्तभाउ। पच्छित्तु तासु जइ करहि अज, ता घड तुझ परलोयकज्जु ॥२४॥ तुई देउ कोधि भव्वयणबंधु, पुरुषवचरियभारस्स खंधु। अब्भत्थिोसि देदेहि तेम, णिविग्चे लहु णित्वहह जेम ॥ २५ ॥
घत्ता । प्राइललियएं गंभीरपं सालंकारएं वायएं ता किं किजइ।
जइ कुसुमसरवियारउ अरुहु भडारउ सम्भावे ण थुणिंजइ ॥ २६ ॥ को आनन्द देनेवाले मन्दिर में चालिए । वह सुकवियों के कवित्वका मर्मज्ञ है, गुणगणों से तृप्त है और तीनों भुवनों के लिए भला है, वह निश्चय से आप का सम्मान करेगां॥ १८॥
यह सुन कर वह खण्ड कवि-जिस के शरीर को मानों विधाताने काव्य का मूर्तिमान पिण्ड ही बनाया हैउस ओर को चल दिया। उस समय भरत मंत्रीने उस को इस तरह आते देखा जिस तरह सरस्वतीरूपी सरिता की एक तरंग ही आ रही है ॥ १९ ॥ तब उस ने अभ्यागत विधान के अनुसार उस का सब प्रकार से अतिथिसत्कार किया और बहत ही प्रिय, दंभरहित धर्मवचनों से संभाषण किया ॥२०॥ कहा--हे गुणमणिनिधान, आप भले पधारे. कमल के लिए जैसे सूर्य प्रसन्नताका कारण है, उसी तरह आप मेरे लिए हैं । ऐसा कहकर उस के मार्ग श्रम से क्षीण हए शरीर को सुख देनेवाले मनोहर नान, विलेपन और आभूषणों से उस का सत्कार किया और देवों के निवास करने योग्य स्थान में ठहराया। इसके बाद अत्यन्त रसाल भोजन से उसे तृप्त किया । इस तरह कुछ दिन बीत गये ॥२१-२२॥ देवी सुत (भरत ) ने कहा-हे श्लाघनीय नामधारी पुष्पदन्त, भैरव नरेन्द्र ( कृष्णराज ) अपने वैभव से सुरेन्द्र को भी जीतनेवाले और पर्वत के समान धीर वीर हैं ॥ २३ ॥ तुमने कांची नरेश वीरराज शद्रक (?) का वर्णन किया है, और उसे माना है अतः इस से जो मिथ्यात्वभाव उत्पन्न हुआ है उस का यदि तुम आज प्रायश्चित्त कर डालो तो इस से तुम्हारा परलोक का कार्य बन जाय ॥ २४ ॥ भव्यजनों के लिए बन्धुतुल्य तुम्हें पसदेव । आदिनाथ) चरित्र की रचना करनी चाहिए। मैं तुम्हारी अभ्यर्थना करता हूं। इस काव्यरचना से तुम निर्विघ्नता पूर्वक निवृति प्राप्त करोगे ॥ २५॥ वह अतिशय ललित, गंभीर और अलंकारयुक्त रचना भी किस काम की जिस में कामबाणों को व्यर्थ करनेवाले अहेतु भटारक की सद्भावपूर्वक स्तुति न की गई हो? ॥२६॥
१ भइरव-कृष्णराजः।
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