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जैन साहित्य संशोधक- परिशिष्ट
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कथक त्वं धन्न २, इदं वड व्रतरक्षक, विरुदधारक, श्री स्युलिभद्र स्वामी स्वर्गे पुहूता ।
संघात पहिलं वज्रऋषभ नारा च संघयण १ अनें पहिलं सम चउरंस नामे संस्थान २ पुनः पूर्वनुयोग ३ ए चिहूं वस्तु विच्छेद हूइ । एहवें श्रीवीर मुक्ति हुआ पछी बसें चउद वर्ष गइ थके अव्यक्त नामा त्रिजो निन्हव प्रगट हूओ । यत उक्तम्-
heet चरम जंबूस्वाम्यथ प्रभवः प्रभुः । शय्यंभवो यशोभद्रः संभूतिविजयस्तथा ॥ भद्रबाहुः स्थूलभद्रः श्रुतकेवलिनो हि षट् । ए छ श्रुत केवली जाणवा । अत्र महारुषि श्रीस्थूलभद्र वर्णन काव्य
वेश्या रागवती सदा तदनुगा षट्मी रसैर्भोजनं शुभ्रं धाम मनोहरपुरहो नव्यो वयः संगमे । कालोयं जलदाविलस्तदपि यः कामं जिगीयादरात् तं वंदे युवतीप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलभद्रं मुनिम् | १| श्रीशांतिनाथ दपरो न दानी
दशार्ण ( १०- १ ) भद्रादपरो न मानी । श्रीशालिभद्रादपरो न भोगी ।
पुन: श्री वीर मोक्ष हुआ पछी बसें अने वीस वर्ष गई हूंति बोध मत प्रकट हूओ । इति थुलिभद्र संबंध |
पाट ७ ।
श्रीस्थूलभद्रादपरो न योगी || २ ||
ए तुमे कही एहवी जे नलनी गुल्म विमान- सुष देवसाहि
ए श्री स्थूलभद्रनो संबंध अन्य चरित्रे विस्तार छें । ते बानी वात ते तुम अत्र रह्या किम जाणो छो ? श्री आमाटे अत्र विस्तार कन्यो नथी ।
८ तत्पट्टे श्री महागिरि ।
श्री आर्य सुहस्ति सूरि ।
ए बेहूं गुरुभाइ जाणवां । ते मांहि प्रथम वडा गुरूभाइ श्रीमहागीरी, तेहनो गोत्र एलापत्य नांमें छे । अनें वीजा लघु गुरुभाइ श्री आर्य सूहस्ति सुरी तेहनो गोत्र वासिष्ठ छे । ते मांहि प्रथम श्री आर्य महागिरि सूरि ते पटोधर जाणवा अने श्री आर्य सुहस्ति सूरि ते गछनी सार संभालिंना करणहार जाणवां । ते माटे बिहूनो नाम लख्यो छे । तिहां प्रथम बडा गुरुभाइ श्री आर्य
[१
गिरि सूरि वर्ष तीस संसारीक पद भोगवी श्री स्थूलीभद्र स्वामीपासें दीक्षा लीधी । अने वर्ष व्यालीसताई गुरु श्री स्थूलीभद्र स्वामीनी सेवा शिष्यपणे कीधी । वर्ष त्रांस युग प्रवान पद भोगवी सर्वायु ( १०-३२ ) एक शत वर्ष संपूर्ण । लघु श्रीआर्य सुहस्ति सूरीने गछ भलावी श्री आर्य महागिरी सूरीइं जिन कल्पीनी तुलना करी । श्री वीर निर्वाणि हूआ पछी बसें पसतालीस वर्ष वीते श्री आर्य महागोरी सूरी स्वर्ग हुआ || १ ।।
जोडें
महा
हवें श्रीवर मुक्ति हुआ पछी बसें अठावीस वर्षे गंग नांमा पांचमो निन्हव प्रगट हूओ ।
हवें श्री आर्य सुहस्ति सूरि भव्य जीवने परमोपकारी थका विचरता मालव देसें उजणी नगरे भद्रा नामें सार्थ वाही पासें वाहनशाला याची चौमासु रह्या छे । तिहां निसि सझाय ध्यान करें छे, एतले सात भूमिदं भद्रापूत्र अवंति सुकमाल नामें बत्तीस स्त्रीओ साथै सु विलास करतां, गुरु कथक अध्ययन मधुर स्वर एक चित थकी सांभली, जाति स्मरण पांमी, पूर्व भव नलनी गुल्म विमाननो देवसुष दीठो | स्त्रीओनो सुष विलास मूकी उतावलो मेढी थकी उतरी गुरुने नमी कहे, साधुजी
चार्य कहि- श्रीजिनवचनानुसारिं । श्रेष्टि ( ११--१ ) पूत्र कहे, पूज्य ! एतलो ए सुष भोगवी अत्र उपनो अने पुनरपि ते देवमुष हूँ किम पांमु ? श्रीगुरु कहें, व्रत लिओ तो ते सुष लहो । तिवारें तिणें भद्रा मातानी आज्ञा लही, बत्रीस कन्या कोटी द्रव्य तजी; श्री गुरुहस्ति दीक्षा लीधी । गुरुनें कहें ए कठीण दीक्षा मे घणा दिन ताई न सचवाय ते माटे अणसण करें | सांभली कहे तमांरा जीवनि जिम सुषनो हेतु हुइ तिम करो | गुरुवचन तहत्ति कही जिहां समसानि कंधेरी बनने विशे का गो रही अणसण ऋधु । मारगिं जातां कोमल बिहु पर्ने कंथेरना कांटा खुतवे करी लोहीना छे । तेहनी गंधे रात्रिने विषे प्रसूता सीयाल परिवारस्युं जिहां अवंति मकुमाल साधु देह
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