Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 169
________________ अंक ४ जंबुद्दीव पण्णन्ति । प्रज्ञप्तीकर्ता पद्मनन्दि कब हुए हैं, यह बतानेके लिये अभीतक हमें कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है । परन्तु हमारा अनुमान है कि यह ग्रन्थ विक्रमकी दसवीं शताब्दी के बादका तो नहीं है, पहलेका भले ही हो । क्यों कि - १) ग्रन्थकी रचनाशैली सदृश है और भाषा भी होती है। बिलकुल त्रिलोक प्रज्ञप्तिके अपेक्षाकृत प्राचीन मालूम २) नववीं दसवीं शताब्दीके बाद के ग्रन्थकर्ता अपनी गुरुपरम्परा बतलाते समय संघ और गण गच्छादिका परिचय अवश्य देते हैं । पर इस ग्रन्थमें किसी संघ या गण गच्छादिका नाम नहीं है । मंगराजकविके शिलालेख के अनुसार अकलंकभट्टके बाद देव, नन्दि, सेन, और सिंह इन चार संघोंकी स्थापना हुई है । अतः हमारी समझमें यह ग्रन्थ अकलङ्क देवसे पहलेका होना चाहिए । अकलङ्क देवका समय विक्रमकी ८ वीं शताब्दी है । ३) ऐसा मालूम होता है कि इस ग्रन्थसे पहले इस विषयका कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं था । पद्मनन्दि मुनिने श्रीविजयगुरुके निकट आचार्य परम्परासे चला आया हुआ यह विषय सुनकर लिखा है । किसी एक या अनेक ग्रथोंके आधार आदीसे नहीं । इस विषय में नीचे लिखी हुई गाथायें अच्छी तरह विचारने योग्य हैं । ते वंदिऊण सिरसा वोच्छामि जहाकमेण जिणदिठं । आयरियपरम्परया पण्णत्तिं दविजलधीणं ॥ ६ ॥ X X X X X आयरियपरम्परया सायरदीवाण तह य पण्णत्ती । संखेवेण समत्थं वोच्छामि जहाणु पुव्वीए ।। १८ ।। X X X X X ये कारयन्ति जिनसा जिनाकृतिं वा । पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्तास्तोतुं परस्य किमु कारयितुर्द्वयस्य ।। २२ ।। १. देखो श्रवण बेलगोला इन्स्क्रिप्शनका १०८ वां शिलालेख और जैनसिद्धान्त भास्कर किरण ३ । १४७ ...... रिसिविजयगुरुत्ति विक्खाओ || १४४ | सोऊण तस्स पासे जिणवयण विणिग्गयं अमदभूदं । रइदं किंचु से अत्थपदं तहव लदूणम् || १४५ ।। यदि यह अनुमान ठीक हो कि दिगम्बर सम्प्रदाय में इस विषयका यह पहला ग्रन्थ है तो अवश्यही यह पुराना है । और आश्चर्य नहीं जो त्रिलोकप्रज्ञप्ति के रचे जाने के 'समय में अथवा उससे कुछ पीछे लिखा गया हो | इस ग्रन्थ में ' उक्तं च' कह कर अन्य गाथायें या श्लोकादि भी उद्धृत नहीं हैं । इससे भी इसे प्राचीन माननेकी इच्छा होती है । यह ग्रन्थ जिन नन्दिगुरुके लिये बनाया गया है, उनके दादागुरुका नाम माघानन्दि था, और वे बहुत ही विख्यात, श्रुतसागरपारगामी, तपः संयमसम्पन्न, तथा प्रगल्मबुद्धि थे । इन्द्रनन्दीने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि वीरनीर्वाणसे ६८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही। उनके बाद अर्हद्वलि आचार्य हुए और उनके कुछ समय बाद ( तत्कालही नहीं ) माघनन्दि आचार्य हुए । आश्चर्य नहीं जो नन्दिगुरुके दादागुरु यही माघनन्दि हों । उन्हें जो विशेषण दिये गये हैं उससे भी मालूम होता है कि वे कोई सामान्य आचार्य न होंगे । इन्द्रनन्दिके कथन क्रम से माघनन्दीका समय वीरनिर्वाणसंवत् ८०० लगभग तक आसंकता है । और इस हिसाब से नन्दिगुरु और पद्मनन्दीका समय वीरनिवाणकी ९ वीं शताब्दि माना जा सकता हैं । पर इस विषय में अधिक जोर नहीं दिया जा सकता कि इन्द्रनन्दिकथित माघनन्दि और यह माघनन्दि एकही होंगे । इस ग्रन्थ में भगवान् महावीरके बादकी आचार्यपरम्पराके विषयमें जो कुछ लिखा है उसका आशय इस प्रकार है । विपुलाचलके ऊंचे शिखरपर विराजमान वर्धमान १ वीरनिर्वाण संवत १००० के लगभग । २ यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के ' तत्त्वानुशासनादिसंग्रह ' नामक १३ वे अंकमें छप चुका है । Aho! Shrutgyanam

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