Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 223
________________ अंक ४ ] "चर तेम ज अचर ( तस अने थावर ) उभय प्रकारना प्राणीनी हिंसाथी दूर रहेवुं, तेणे ( भिक्षुए) जीवने हानि करवी नहीं, कराववी नहीं, बीजाने तेस करवामां सम्मति आपवी नहीं. " " तेज प्रमाणे धम्मपद ( २६, २३) मां:" जे चराचर प्राणीनी हिंसाथी दूर रहे छे तेने हुं ब्राह्मण कहुं छु; जे पोते हिंसा करतो नथी, अने अन्यने हिंसा करवा प्रेरतो नथी (तेने हुं ब्राम्हण गणुं कुं. ) " सारूप्यमत्तनो आत्मानुं सारूप्य - अर्थात् ज्यां ज्यां जीव छे त्यां त्यां तेना आत्माना जेवुं ज कोई छे " ए वात भिक्षुए भूलवी जोईए नहीं. २४ अहिंसा अने वनस्पति आहार " लीला रोपाओने पगनीचे चगदी नाखवाथी दूर रहे वाने, वनस्पति जीवनी हिंसाथी बचवाने, घणा नाना जीवोनी जिंदगीमो क्षय थतो अटकाववाने " २५ माटे वर्षा ऋतुमा पर्यटन करवानी ना करी हती. जे फळोने अनिथी, छरीथी, नखथी अचेतन करवामां आव्या होय अथवा जेमा एक पण बीज रधुं न होय अथवा जेमां बीजनो ( अर्थात् बीजमां रहेली बीजां फळो उत्पन्न करवानी शक्तिनो) क्षय थई गयो होय, तेवां ज फळा खावानी रजा आपवामां आवी हती. २६ आ साथे- एटले वनस्पति जीवनी अहिंसा साथे " घास वगरनी " जगामां अन्नना अविशिष्ट भागने फेंकी देवानो आदेश पण घणे स्थले करवामां आव्यो छे. आ बधुं तो बौद्ध भिक्षुने उद्देशीने विवेचन थयुं. हवे आपणे ए निर्णय करवानो छे के बौद्ध गृहस्थ माटे आ नियमो छे के नहीं ? अने जो होय तो ते केटली मर्यादा सुधी. १९१ परंतु जे कायाथी, वचनथी, अने मनथी कोईनी हिंसा करतो नथी तेवो अहिंसक तूं था. केम के ते ज खरो अहिंसक छे जे बीजानी हिंसा करतो नथी. " पुनः अंगुत्तरनिकाय (३, १५३ comp, १०, २१२ मां आपणे वांची छीए के:-- 66 हे भिक्षुओ ! aण कार्यवाळो माणस नरकगामी थाय छे. कया ते त्रण कार्यों ? जे पोते जीवनी हिंसा करतो होय, बीजाने हिंसा करवा प्रेरतो होय, अने बीजाने हिंसा करवामां सम्मति आपतो होय. " जैनोनी स्थूल अहिंसाना जेवुं एमां पण कांई होवुं जोईए ए विचार, दृष्टांत तरीके, संयुक्त निकाय ७, १, ५ ना उल्लेखथी दृढ थाय छे. ते स्थळे ज्यारे अहिंसक नामनो ब्राह्मण बुद्धपासे आवीने कहे छे के " अयुष्मान् गोतम, हूं अहिंसक छु " त्यारे तेनो उत्तर बुद्ध श्लोकोमा आ प्रमाणे आपे छे: आ विषयमा सौथी वधारे विचारखा लायक सुत्तनिपातनुं धम्मिक सुत्त छे. भिक्षुना नियमनुं वर्णन कर्या पछी, तेमां ( श्लोक १८ विगेरे ) कयुं छे के “ हवे हुं तमने गृहस्थना धर्मो कहीश, जेनुं पालन करवाथी मनुष्य ( बीजा जन्ममां ) श्रमण अने अर्हत् थाय छे. कारण के एक भिक्षु पासेथी जे नियमोना पालननी आशा राखी शकाय, तेवा नियामो पालवा गृहस्थ, कदाच समर्थ थाय नहीं. " अने त्यार पछी चर तेम ज अचर-तस यावर उभय प्रकारना " विगेरे उपर उतारेला श्लोको बडे उपासक गृहस्थना धर्मोनी ते गणना गणावे छे. "L आथी ए विचार सूचवाय छे के, जो के अचरजीवो " ए पदनो बौद्ध मतमां अर्थ मात्र " वनस्पतियोनी ” एटलो ज थाय छे. छतां चर अने अचर बन्ने प्रकारनो अहिं समावेश करवामां आवेला होवाथी बौद्ध धमीं गृहस्थ, जैन उपासक करतां वधारे व्यापक अर्थमां अहिंसानुं पालन करे छे. परंतु कदाच ए विचार बरा - वर पण नहीं होय. कारण के पिटकोमा एक ज शब्द घणी वार जुदा जुदा अर्थमा प्रयोजाएलो नजरे पडे छे 66 तूं जेम कहे छे ते भले तारं नाम अहिंसक होः अने तेथी तस अने थावरनो जे अर्थ अहिं ए लोको करता "हिंसा, हे भिक्षूओ ! हुं त्रण प्रकारनी गणुं हुं. लोभी कराएली, दोष - धिक्कारथी कराएली, अने अज्ञानमोहथी कराएली. " आ वचनो अंगुत्तर निकाय ( १० - १७४ ) मांनां नियमनी जेम मात्र भिक्षूओ माटे ज कहेवामां नथी आव्यां. Aho! Shrutgyanam

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