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जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट. ४ तत्प? श्रीशय्यंभव स्वामी ।
६ तत्पट्टे श्री संभूति विजय सूरी । तेहनी वक्षस गोत्र । तिणे सगर्भा, यज्ञारंभने विषे, श्री भद्रबाहु स्वामी । २। ए बेहू गुरू भाइ जाणवा । श्रीने घरे मुकी श्री प्रभव स्वामी पासे दीक्षा लीधी छ। त मांहि श्री संभूति विजय सूरी ते पटधर जाणवा अनें यज्ञ करतां शिय्यंभवनें प्रभवा स्वामीई संवाद करी, भद्रबाहु स्वामी ते गच्छनी सार संभालीना करनहार यज्ञ स्थंभथी श्री शान्तिनाथजीनी प्रतीमा देषाडीने प्रतिबोधी जाणवा । ते माटे बिहनो नाम जोडे लष्यो । तिहा दीक्षा दीधी । तंवारें केडे ते स्त्रीने मनक नामें पूत्र हूओ प्रथम बडा गुरूभाइ श्री संभूति विजय स्वामी । तेहनो । ते बेटे पण लघुपणे पीता श्री शय्यंभव पासे दीक्षा माढर गोत्र छ । अनें बीजा लधु गुरू भाइ श्री भद्रबाहु लीधी । पूत्रना स्नेह थकी साधुनो आचार शिषववा स्वामी । तेहनो प्राचीन गोत्र छ । हिवें श्रीसंभूति विजय उपगारने हेते श्री दशवीकालक एहवें नांमें सूत्र दस स्वामीये वर्ष बहेंतालीस गृहस्थाश्रम भोगवी श्रा गुरू अध्यन निपजाव्या । ते बाल साधुनी छमासनी आयु. यशोभद्र पासिं दीक्षा लीधी । अने वर्ष चयालीस श्री स्थिति थाक सूत्र नीपजाव्यो छमासे ए सिद्धांत भण्यो । यशोभद्र स्वामीनी सेवा शिष्य पणे काधी । पुनः वर्ष अनुक्रमे ते बालक साधु मरण पांम्यो । तिवारें अन्य आठ युगप्रधान पद भोगवी सर्वायु वर्ष ९० संपूर्ण ।
पोतानो पुत्र जाण्यो । गुरुयं नेत्रे आंसू पात थाता श्रीवीर मुक्ति हुआ पछी वर्ष १५६ वी श्री संभूती जाणी ( ६-१ ) साधोये वैराग्य वचन कही समझाया। विजय स्वामी स्वर्गे पूहूता |! १ ।। हवे बीजो लधु निर्मोह दशामा चेतना आणी समता भावे हुआ । गुरूभाइ भद्रबाहु स्वामि तेहनु काइक स्वरूप(७--१)कहें छे। __ हविं श्री शय्यंभव स्वामीय वर्व अठावीस गृहस्थ पद दक्षिण दिशि प्रतिष्ठानपूर नगरे प्राचिन गोत्रिया भोगव्यु । अनें वर्ष इग्यार श्री प्रभवनी सेवा शिष्यपणे वराहमीर । १। अने लघु बंधव भद्रबाहु । २ । कीधी । पुनः वर्ष त्रेविसताइ युगप्रधान पद भोगवी सर्व नां वाडव रहे छे । तिणे श्री यशोभद्र गुरूनी वाणी आयु (वर्ष ) बासठ संपूर्ण पाली श्रीवीर मुक्तिं गया सांभली गुरूहस्ते दीक्षा लीधी । ते बेहूं बंधब घणे दिने पछी वर्ष अठाणुये श्री शिय्यंभव सूरि स्वर्ग हूओ ।। ५ ।। विद्याभ्यास करतां षट् दर्शनना मतना शास्त्र तेहना जाण यतः-कृतं विकालवेलायां दशअध्ययनगर्भितम् । हुआ । एकदा गुरु यशोभद्र चित्तनें विषं चिंतवें जे ए
दशवैकालिकामिति नाम्ना शास्त्रं बभूव ततः ।। १ ।। बडो भाइ योग्य छे, पिण अहंकारी छे । तेहथी पद . अतः परं भविष्यंति प्राणिना ह्यल्पमेधसः । योग्य नहीं । अनि नाहनो भाइ भद्रबाहु तेहनि समता
कृतार्थास्ते मनकवत् भवंतु त्वत्प्रसादतः ।। २ ।। युक्त श्रुतसमुद्र जांनी गुरुये सूरी कीधों । एतले ते श्रुतांभोजस्य किंजल्कमिदं संघोपरोधतः ।
वाराहमिहर बहो भाइ गुरु तथा भद्रबाहू-५ बिहूं महाफलसमायातौ न संवत्रे महात्मभिः ।। ३ ।। उपर घणे कुचे यती वेष लोपी पूनरपि संसारी इने __ ५ तत्प? श्री यशोभद्र स्वामी।
आजीवीका हेति पोताना नामनी वाराही तेहनो तुंगीकायन गोत्र । तिणे वर्ष बावसिताइ योतिषनो सास्त्र नीपजावी मनुष्यनि नि संसारीपणु भोगवी श्री सय्यंभव गुरुहस्ते दीक्षा लिधि. कहें । एकदा राजसभायें आवी वारा भने वर्ष चउद श्री सियंभव स्वामीनी सेवा शिष्यपणे हालुं करी कहे, जे आज थकी पांच कीधी ! पुनः वर्ष पचास यूगमधान पद भोगवी सर्व थकी बीजा प्रहरने अंते इणिं कंडा -आयु वर्ष छा (६-२) सी संपूर्ण पाली, श्रीवीर भुक्ति थकी देव योगें बावन (७.-२) हुआ पछी, वर्ष एकसो बहेतालीस वित्ते श्रुतकेवली ते सांभली राजा श्रीभद्रवाहूने कहे, श्रीयशोभद्र स्वामी स्वर्ग हुआ! इति पंचम पाट ॥ ५॥ भद्रबाहु कहें, जे मेह पूर्व दिसी
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