Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 153
________________ अंक ४] दक्षिण भारतमें ९ वीं-१०-चीं शताब्दीका जैन धर्म । १३१ रख छोडा, जिसका अनुवाद ऊपर दिया है । " चामु- तथा कृतयुगमें वह षण्मुख था, त्रेतामें राम, द्वापरमें ण्डरायने एक ग्रन्थी रचना की जिसका नाम चामुण्ड- गाण्डीवि और कलियुगमें वीर मार्तण्ड था । फिर उसकी राय पुराण है और जिसमें २४ तीर्थंकरोंका संक्षिप्त अनेक उपाधियोंके प्राप्त होनेके कारण लिखे हैं । खेडग इतिहास है और उसके अन्तमें ईश्वर नाम शक संवत्सर युद्धमें विज्जलदेवको परास्त करनेसे उसको समरधुरन्धर९०० (९७८ ईस्वी) उसकी तिथि दी हुई है"। की उपाधि मिली | नोलम्बयुद्ध में गोनूर नदीकी तीर, उपरोक्त शिलालेखके श्लोकोंमें दिया हुआ वर्णन चामु- उसकी वीरतापर 'वीरमातंण्ड' की उपाधि, उच्छंगी ण्डरायपुराणके वर्णनसे मिलता जुलता है । उस पुराणके गढके युद्ध के कारण रणरंगसिंह'की उपाधि,बागलूरके किलेप्रारंभके अध्यायमें यह लिखा है कि उसका स्वामी गंग- मे त्रिभुवन-वीर ' और अन्य योद्धाओंका वध करने कुल चूडामणि जगदेकवार नोलम्बकुलान्तक-देव था; और गोविन्दको उस किले में प्रवेश कराने के उपलक्ष्यमें और वह ब्रह्मक्षत्रवंशमें उत्पन्न हुआ था । अन्तके अध्या- 'वैरीकुलकालदण्ड ' की उपाधि काम नामक यमें यह लिखा है कि वह अजितसेनका शिष्य था । नुपति के गढमें राजा तथा अन्य लोगोंको हरानेसे 'भुजपत्युः श्रीजगदेकवीरनृपतेज्जैंत्रद्विपस्याग्रतो विक्रम ' की उपाधि, अपने कनिष्ठ भ्राता नागवर्मा को धावद्दन्तिनि यत्र भग्नमहतानीकं मृगानीकवत् ।। उसके द्वेषके कारण मारडालने के निमित्त — चलदंकगंग' की उपाधि; गंगमट मुदु राचय्यके वधसे 'समर-परशुअस्मिन् दन्तिनि दन्तवज्रदलितद्वित्कुम्भिकुम्मोपलं राम' और 'प्रतिपक्ष-राक्षस' की उपाधियां; सुभटवीरोत्तंसपुराोनषादिनि रिपुव्यालाङ्कुशे च त्वयि । वीर के गढको नाश करनेके कारण ' भटमारि' की स्यात् को नाम न गोचरः प्रतिनृपो मद्बाणकृष्णोरग । उपाधि, अपनी और दूसरोंके वीरगुणोंकी रक्षाके कारण ग्रासस्येति नोलम्बराजसमरे यः श्लाधितः स्वामिना ।। 'गुणवं काव' की उपाधि, उसकी उदारता एवं सद्गुण खातः क्षारपयोधिरस्तु परिधिश्चास्तु त्रिकूट: पुरी आदिके कारण 'सम्यक्त्व रत्नाकर' की उपाधि दूसलङ्कास्तु प्रतिनायकोस्तु च सुरारातिस्तथापि क्षमे ।। रोके धन दारा हरण की इच्छा न करनेसे 'शौचाभरण' तं जेतुं जगदकवीरनृपते त्वत्तेजसीतिक्षणान् की उपाधि; हास्यमें भी कभी असत्य न बोलनेसे 'सत्य निव्यूढं रणसिंहपार्थिवरणे येनोजितं गजितम् ॥ युधिष्ठिर ' की उपाधि; अत्यन्त वीर योद्धाओंके शिवीरस्यास्य रणेषु भूरिषु वयं कण्ठग्रहोत्कण्ठया रोमणि होनेके कारण 'सुभटचडामणि' की उपाधि तप्ताः सम्प्रति लब्धनिवृतिरसास्तत्-खड्गधाराम्भसा । मिली । अन्तमें अपने ग्रन्थमें वह अपनेको 'कविजनकल्पान्तं रणरङ्गसिंहविजयि जीवेति नाकाङ्गना शेखर' भी कहता है । गीर्वाणीकृतराजगन्धकरिणे यस्मै वितीर्णाशिषः ।। ___ इन उपरोक्त उल्लेखोंमेंसे बहुतोंका और कहीं वर्णन आकृष्टुं भुजविक्रमादभिलषन् गङ्गाधिराज्यश्रियं नहीं है । परन्तु यह बात ध्यान देने योग्य है कि इतने येनादौ चलदंकगङ्गनृपतिर्व्याभिलाषी कृतः ।। प्रसिद्ध और गौरवान्वित कार्योंके साथ उसके एक भी कृत्वा वीरकपालरत्नचषके वीरद्विषः शोणितं पातुं कौतुकिनश्च कोणपगणाः पूर्णाभिलाषीकृताः ।। धार्मिक कार्यका वर्णन नहीं है । प्रत्युत अदिसे अन्त त(स्यागड ब्रह्मदेवखम्भका शिलालेख, ई. स. ९८३, देखो. ल क युद्ध और रक्तपातकी ही कथा वर्णित है। " रा. श्रवणबेलगोल. पृष्ट ८५) ___ परन्तु इस बातको सिद्ध करने के लिए सन्देह रहित ९ लुईस राईस 'श्रवणबेलगोलके शिलालेख' भूमिका पृ. २२, प्रमाण उपस्थित है कि वृद्धावस्था प्राप्त होने पर चामुण्डतथा कर्नल मेकर्जाका कलेक्शन (एच्. एच. विल्सनद्वारा संपादित, भाग १, पृ. १४६; जहां यह लिखा है कि चामुण्डराय पुरा- १० देखो, लुईस राईस, 'श्रवण बेलगोलके शिलालेख, 'भूणमें जैन धर्मके ६३ प्रसिद्ध पुरुषोंका वर्णन है। भिका, पृ. ३४. Aho! Shrutgyanam

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