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जन पूजांजलि रागादि भावों को नष्ट करना ही सच्चा प्रक्षालन है।
(जयमाला) हे जगबन्धु जिनेश्वर तुमको अब तक कभी नहीं ध्याया । श्रो जिनवाणी बहुत सुनी पर नहीं कभी श्रद्धा लाया ॥ परम वीतरागी सन्तों का भी उपदेश न मन भाया । नरक त्रिययंच देव नर गति में भ्रमण किया बहु दुख पाया। पाप पुण्य में लीन हुआ निज शुद्ध भाव को विसराया। इसीलिये प्रभुवर अनादि से भव अटवी में भरमाया । आज तुम्हारे दर्शन कर प्रभु मैंने निज दर्शन पाया । परम शुद्ध चैतन्य ज्ञानघन का बहुमान हृदय आया ॥ दो आशीष मुझे हे जिनवर जिनवाणी गुरदेव महान । मह महातम शीघ्र नष्ट हो जाये करू आत्म कत्याण ॥ स्वपर दिनेक जगे अन्तर में दो सम्यक् श्रद्धा का दान । क्षायक हो उपशम हो हे प्रभु क्षयोपमशम सदर्शन ज्ञान ॥ सात तत्व पर श्रद्धा करके देव शास्त्र गुरु को मान । निज पर भेद जानकर केवल निज में ही प्रतीत ठानं ॥ पर द्रव्यों से मैं ममत्व तज आत्म द्रव्य को पहचान । आत्म द्रव्य को इस शरीर से पृथक् भिन्न निर्मल जानूं ॥ समकित रवि की किरणें मेरे उर अन्तर में करें प्रकाश । सम्यक ज्ञान प्राप्त कर स्वामी पर भावों का करू विनाश ।। सम्यक् चारित को धारण कर निज स्वरूप का करूं विकास । रत्नत्रय के अवलम्बन से मिले मुक्ति निर्वाण निवास ॥
दोहा जय जय जय अरहन्त देव जय, जिनवाणी जग कल्याणी । जय निर्ग्रन्थ महान् सुगुरु, जय जय शाश्वत शिव सुखदानी।