Book Title: Jain Pooja Kavya Ek Chintan
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 6
________________ आदि), आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ( विषयभोगों का त्याग ), धारणा, ध्यान, समाधि । इन आठ अंगों में ईश्वर भक्ति, ध्यान तथा समाधि-ये उपासना के ही नामान्तर हैं। कारण कि बिना उपासना के योग की साधना सम्भव नहीं हैं। वेदान्त का अर्थ है जिस तत्त्व की साधना में वेद (ज्ञान) का अन्त (चरमसीमा) प्राप्त हो । उपनिषद् का अर्थ होता है- उप ( आत्मा के समीप ) निषद् (स्थित होना) अर्थात् आत्मा में लीन होना । इस वेदान्त को उत्तरमीमांसा भी कहते हैं। वेदान्त की मान्यता मुख्यतया दो धाराओं में प्रचलित है-- (1) विशिष्टाद्वैत के रूप में, ( 2 ) निर्विशेषाद्वैत के रूप में विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में 3 तत्त्व माने गये हैं- (1) चितू (जीव), (2) अचित् ( अचेतन, अजीव ), ( 3 ) ईश्वर की उपासना | निर्विशेषाद्वैत सिद्धान्त में एक ही परब्रह्म तत्त्व मान्यता को प्राप्त है। इस ब्रह्मतत्त्व के चार पाद होते हैं - (1) जागृत ( भक्ति में व्याप्त), (2) सुषुप्ति (ज्ञानमय उपयोग तथा बाह्य पदार्थों से निवृत्ति) (3) अन्य (जोबन्मुक्त), (4) तुरीयपाद - परब्रह्म । इस दर्शन में भी परब्रह्म की भक्ति का महत्त्व है । श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्म - संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ' जगत् के मानव इन अवतारों की निर्गुणभक्ति और सगुणभक्ति करके अपना कल्याण करते हैं। कोई मानव मूर्ति के माध्यम से पूजा करते हैं और कोई मूर्ति के बिना भी अर्चा करते हैं। कोई जल, चन्दन आदि द्रव्यों से देव की अर्चा करते हैं और कोई बिना द्रव्य के परमेश्वर तथा अवतारों की भाव अर्चा करते हैं। ज्ञानाद्वैतदर्शन में उपासना का स्थान ज्ञानाद्वैतदर्शन में विश्व के अन्तर्गत एक ज्ञान ही तत्त्व माना गया है। यह दर्शन ज्ञान के द्वारा ही विश्व का कल्याण मानता है। यह सम्पूर्ण विश्व ज्ञानमय है । उत्कृष्टज्ञान की प्राप्ति ही मोक्ष है अतः ज्ञान की उपासना (पूजा) ही श्रेष्ठ कर्तव्य मान्य है । ब्रह्माद्वैतदर्शन में उपासना का महत्त्व 1. श्रीमद्भगवद्गीता : भाष्यकार - बालगंगाधर तिलक प्र.रा.व. तिलक गायकवाडा, पूना, सन् 1926 T. 76. : प्राक्कथन : 9

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